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________________ ७४ अप्पाणं सरणं गच्छामि संकट का सागर आज की भयंकर समस्या है-मानसिक तनाव। किन्तु इसके पीछे जो भयंकरता है उसके प्रति ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यह भयंकरता है-अध्यात्म को भुला बैठना। यह विकट समस्या है। आदमी अध्यात्म को, अपने अस्तित्व को भुलाकर, अपने द्वारा खोजे गए सत्यों को भुलाकर वह एक ऐसे संकट के सागर में उतरता जा रहा है कि जहां पहुंचने पर आर-पार दिखाई नहीं देता। तर्कशास्त्र का एक न्याय है-'जलपोतकाकन्याय' । एक कौवा जहाज के शिखर पर जा बैठा । जहाज चला। अथाह महासागर को चीरता हुआ वह काफी आगे बढ़ गया। कौवे ने उड़कर भूमि पर जाना चाहा। पर उसने देखा चारों ओर पानी ही पानी है। भूमि कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुई। वह पुनः वहीं आकर बैठ गया। वह चकाचौंध में पड़ गया। मुझे लगता है आज का आदमी भ्रान्तियों के जहाज पर बैठकर मिथ्या धारणाओं के समुद्र में इतना गहरा चला गया है कि उसे सचाई का तट कहीं नजर नहीं आता। तनाव से तनाव बढ़ते जा रहे हैं। हम इस सत्य को स्वीकार करें कि जब तक व्यक्ति एकत्व की सचाई से नहीं गुजरेगा, चिन्तन ही नहीं, उसका अनुभव नहीं करेगा, भेदानुभूति नहीं करेगा, तब तक मानसिक उलझनों का समाधान नहीं मिलेगा। अकेला कौन? __आचार्य भिक्षु ने एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया था। उन्होंने कहा-'गण में रहूं निरदाव अकेलो'-मैं गण समुदाय में रहूंगा, पर अकेला रहूंगा। संघ में रहते हुए अकेले रहना-एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यह साधना का परम रहस्य है। हम सर्वथा अकेले नहीं हो सकते । व्यक्ति सोच सकता है कि वह जंगल में जाकर तो अकेला हो सकता है। कभी नहीं हो सकता। जंगल में जाने वाला तो इतनी भीड़ से घिर जाता है कि गांव में रहने वाला भी नहीं घिरता। हम अकेले कैसे हो सकते हैं जब हमने अपने भीतर हजारों-हजारों संस्कार पाल रखे हैं। मस्तिष्क में इतनी भीड़ है कि जिसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। इतना होने पर हम कहीं भी चले जाएं, अकेले कैसे हो सकते हैं? अकेला होने का अवकाश ही प्राप्त नहीं है। जब तक यह मस्तिष्क खाली नहीं हो जाता, तब तक आदमी अकेला नहीं हो सकता, कभी नहीं हो सकता। ___ अकेला होने का एकमात्र उपाय है-इस सचाई को स्वीकार करना कि संयोग मात्र संयोग है। शरीर, कपड़े, मकान सब संयोग हैं। क्रोध आदि कषाय, बीमारियां-ये सब संयोग हैं। ये हमारा स्वभाव नहीं, विभाव हैं। किन्तु हमने इन सबको स्वभाव मानकर पालने का प्रयत्न किया है। आज भी यही धारणा है कि कोई अप्रिय बात कहे और क्रोध न आए-यह कैसे संभव हो सकता है? वह मनुष्य ही क्या जो क्रोध न करना जाने? वह तो मिट्टी है, और कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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