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________________ प्रस्तुति मनुष्य का जीवन व्याधि, आधि और उपाधि-इन तीन दिशाओं में चल रहा है। कभी शारीरिक कष्ट, कभी मानसिक कष्ट और कभी भावनात्मक कष्ट। कभी-कभी तीनों एक साथ । कष्ट होना अस्वाभाविक नहीं है। प्राकृतिक और सामाजिक प्रभावों के बीच जीने वाला व्यक्ति कष्ट से मुक्त नहीं रह सकता। पर मनुष्य नहीं चाहता कि कष्ट हो। वह ऐसी अवस्था में रहना चाहता है जो कष्टों से अतीत हो। वह अवस्था है समाधि। उस अवस्था में मानसिक और भावनात्मक कष्ट नहीं होते, शारीरिक कष्ट प्रायः नहीं होता और कभी हो भी जाता है तो उसे शान्त भाव से सहने की शक्ति जाग जाती है। चिकित्सा-शास्त्र में व्याधि-शामक उपाय बतलाए गये हैं। मानसिक चिकित्सा में आधि-शामक उपाय मिलते हैं। उपाधि-शामक उपाय केवल अध्यात्म में मिलते हैं। उपाधि (भावनात्मक आवेश, कषाय) का शमन होता है, जब शारीरिक और मानसिक कष्ट अपने आप कम हो जाते हैं। समाधि उपाधि की विपरीत अवस्था है। जैसे-जैसे उपाधि कम होती है, वैसे-वैसे समाधि की घटना घटती है। समाधि की साधना से उपाधि शान्त होती है। उसके शान्त होने का अर्थ है-समाधि। प्रस्तुत पुस्तक में समाधि और उसकी साधना का निदर्शन है। साधना का एक मुख्य सूत्र है-प्रेक्षा। वह समाधि का आदि-बिन्दु भी है और चरम-बिन्दु भी। आदि-बिन्दु में चित्त की निर्मलता का दर्शन होता है और चरम-बिन्दु में चेतना सभी प्रभावों से मुक्त हो जाती है। मध्य-बिन्दु में वह प्रभावित और अ-प्रभावित-दोनों अवस्थाओं में रहती है। वर्षों पहले मेरी यह धारणा थी कि जैन साधना-पद्धति में समाधि के तत्त्व अल्पमात्रा में उपलब्ध हैं। अब धारणा बदल चुकी है। महर्षि पतंजलि ने धारणा, ध्यान और समाधि का भाग किया है। जैन दर्शन में ऐसा विभाग नहीं है। समाधि ध्यान के अर्थ में भी प्रयुक्त है। इसके अतिरिक्त अन्य अर्थों में उसका प्रयोग मिलता है। इसके तत्त्व प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। उत्तराध्ययन (२६वां और ३३वां अध्ययन), भगवई (शतक ६), समवाओ (३२), ठाणं, दशाश्रुतस्कंध आदि अनेक आगमों में इसके तत्त्व विद्यमान हैं। प्रस्तुत कृति में समाधि का शरीर-विज्ञान और मनोविज्ञान के संदर्भ में अध्ययन किया गया है। मैं मानता हूं कि शरीर-शास्त्र के सन्दर्भ में समाधि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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