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८. प्रेक्षा एक प्रयोग है ज्ञानी होने का
एक सेठ महात्मा गांधी के पास आकर बोला- “गांधीजी ! आपके नाम से टोपी चलती है । उसका नाम है 'गांधी टोपी'। हजारों-हजारों व्यक्ति उस टोपी को पहनते हैं, किन्तु आप नंगे सिर घूमते हैं, यह क्यों?' गांधीजी बोले- 'तुम्हारे सिर पर पगड़ी है। एक पगड़ी से बीसों टोपियां बन सकती हैं । जब बीस आदमियों की टोपियां तुम अकेले पहनकर फिरते हो तो फिर उन्नीस आदमियों को तो नंगे सिर ही रहना होगा।' मैं देखता हूं, जब कुछ लोग बौद्धिकता की पगड़ी को पहन लेते हैं तब कुछ व्यक्तियों को अबौद्धिक होकर ही रहना पड़ता है। बुद्धि को बांटें। उसका संचय न करें। बौद्धिकता की पगड़ी को इतनी लम्बी न बनाएं जिससे कि बहुत लोगों को अबौद्धिक रहना पड़े। कोई ऐसा रास्ता चुनें जिससे सब भागीदार बन सकें। वह रास्ता है ज्ञानी होने का। जो ज्ञानी होता है वह नहीं बटोरता । जो बौद्धक होता है वह बटोरता है । ज्ञानी और बौद्धिक में बहुत बड़ा अन्तर है। बौद्धिक वह होता है जिसे अपने अज्ञान का पता नहीं होता, जो अपनी ज्ञान की सीमा को नहीं जानता । ज्ञानी वह होता है जिसे अपने अज्ञान का पता होता है, अपने ज्ञान की सीमा का पता होता है । बौद्धिक अपने प्रति जागृत नहीं होता, अपने आप में स्थिर या एकाग्र नहीं होता । ज्ञानी अपने प्रति जागृत होता है, अपने आप में स्थिर और एकाग्र होता है। बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जो अनेक शास्त्र पढ़ते हैं, पारायण करते हैं, किन्तु उन्हें अपने आपका पता नहीं होता, अपने अज्ञान का पता नहीं होता । कुछ लोग आकर कहते हैं - 'आत्मा ही नहीं है तो फिर धर्म क्यों ?, ध्यान की साधना क्यों? चेतना नाम की कोई वस्तु नहीं है । सारी की सारी भौतिक जगत् की लीला है। सब कुछ भौतिक ही भौतिक । ऐसी स्थिति में अध्यात्म और धर्म के नाम पर जगत् को प्रवंचना में क्यों डाला जाए? जब चेतना दिखाई नहीं देती, आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व ज्ञात नहीं होता तो फिर ये धर्म-कर्म क्यों ? " जब मैं यह सुनता हूं तब लगता है कि आदमी अपने अज्ञान को नहीं जानता, अपने अज्ञान और अपने ज्ञान की सीमा को स्वीकार नहीं करता । जिस व्यक्ति को अन्तर्दृष्टि उपलब्ध नहीं होती, वह अपने अज्ञान को नहीं जान सकता । अपने अज्ञान को वही व्यक्ति जान सकता है जिसे अन्तर्दृष्टि प्राप्त है । 'मैं नहीं जानता' - इसका अर्थ अस्तित्व का लोप नहीं है । यदि इसका अर्थ अस्तित्व का लोप हो तो सारी दुनिया ही नष्ट हो जाएगी ।
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