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५८ अप्पाणं सरणं गच्छामि
बूढ़ा वह होता है जो परिस्थितियों से प्रताड़ित होता है। युवा वह होता है जो परिस्थितियों से प्रताड़ित नहीं होता । प्रतिस्त्रोत : भीड़-रहित मार्ग
प्रेक्षा- ध्यान एक यात्रा पथ है। यह प्रतिस्रोत में चलने का मार्ग है । भगवान् महावीर ने साधना का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया- 'पडिसोयमेव अप्पा दायव्वो होडकामेण - जो व्यक्ति कुछ होना चाहता है, उसे प्रतिस्रोतगामी बनना होगा । हमारे सामने दो मार्ग हैं। एक मार्ग है अनुस्रोत का और एक मार्ग है प्रतिस्रोत का । एक वह मार्ग है जिस पर सारी भीड़ चल रही है, सारी दुनिया चल रही है। एक मार्ग वह है जिस पर संसार से विमुख कुछेक व्यक्ति चल रहे हैं । वह भीड़रहित मार्ग है । एक वे लोग हैं जो वर्तमान के स्रोत के साथ चल रहे हैं। दूसरे वे लोग हैं जो स्रोत के साथ नहीं चलते, स्रोत के प्रतिकूल चलते हैं । आज का स्रोत है - आनन्द से जीओ। सुख-सुविधाओं का अधिक से अधिक भोग करते हुए जीओ । पदार्थों को भोगो । जब पास में धन है तो उसको ऐश-आराम में खर्चे और उसका भोग करो। वे धन का यही उपयोग समझते हैं । आज का पिता चिंतित है कि उसकी संतान सच्चरित्र कैसे रह सकती है ? आज युवकों के सामने इतने प्रलोभन हैं, इतने लुभावने वातावरण हैं कि वे अपने चरित्र की सुरक्षा नहीं कर सकते । जब चरित्र नष्ट हो जाता है तब व्यापारिक समस्याएं उभरती हैं, व्यावसायिक उलझनें आती हैं, पारिवारिक संगठन टूटने लगता है। सारे लोग इस चिन्ता से ग्रस्त हैं । किन्तु आज का युवक प्रतिस्रोत में चलना नहीं चाहता। उसके अपने तर्क हैं। वह सिगरेट पीता है इस तर्क के साथ कि जब पांच-सात मित्र पीते हैं तो मैं कैसे न पीऊं? वह मदिरा पीता है तो इस तर्क के साथ कि मेरे मित्रों की पूरी गोष्ठी मदिरापान करती है तो मेरे पीने में क्या दोष? वह सोसायटी के साथ चलता है। वह सोसायटी से अलग नहीं रहना चाहता । इसीलिए आज सारी वर्जनाएं समाप्त हो रही हैं। प्राचीन समाज की जितनी वर्जनाएं थीं, जितने निषेध थे, वे आज चल नहीं सकते। जो आचार-संहिता थी, वह आज व्यर्थ प्रमाणित हो रही है, क्योंकि आज का समाज बहुत संक्रमणशील हो गया है। दुनिया छोटी हो गयी है। आज कोई अवरोध नहीं रहा । प्राचीनकाल में भारतीय समाज में यह वर्जना थी कि कोई भी भारतीय समुद्र से पार न जाए। आज वे सारी वर्जनाएं समाप्त हो चुकी हैं। पहले अन्तर्जातीय विवाह नहीं होता था । आज यह सीमा भी समाप्त हो चुकी है। आज समाज में कोई निश्चित वर्जनाएं नहीं हैं । कोई कुछ करता है और कोई कुछ | इतना संक्रमण हो गया कि सारी सीमाएं विलीन हो गयीं । जितने बेरियर थे वे सारे टूट गए। ऐसे संक्रमणशील समाज में जीने वाला युवक कौन-से आचार का पालन करे ? किन वर्जनाओं को मान्यता दे? कठिन समस्या है। यदि उसमें
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