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________________ ३४ अप्पाणं सरणं गच्छामि जान ही नहीं सकता। आज का विज्ञान इन सारी बातों को जानता है। प्रत्येक वृत्ति के केन्द्र को उसने खोज लिया है। इस वृत्ति की तरंगें किस पथ से गुजरती हैं, यह भी उसे ज्ञात है। अमुक वृत्ति के केन्द्र पर प्रहार कर, उसे निष्क्रिय कर देने पर वह वृत्ति समाप्त हो जाती है। कर्मशास्त्रीय भाषा में कहा जा सकता है कि उस कर्म के विपाक को बन्द कर डाला। विपाक का मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण वह वृत्ति कभी नहीं उभर सकती। एक नाड़ी को काट देने से क्रोध समाप्त हो जाता है। एक नाड़ी को काट देने से उत्तेजना समाप्त हो जाती है। उन वृत्तियों की अभिव्यक्ति का केन्द्र निष्क्रिय हो जाता है। यहां एक बात पर विशेष ध्यान देना है कि इस प्रक्रिया में तरंगों की अभिव्यक्ति समाप्त हुई है किन्तु तरंगों की उत्पत्ति समाप्त नहीं हुई। उनके गुजरने का रास्ता बंद हुआ है किन्तु उनकी उत्पत्ति का स्रोत नष्ट नहीं हुआ है। वह वैसा ही है। उसी प्रकार सजीव है, सक्रिय है। आदमी नहीं बदला, मुखौटा बदल गया। बाहर का बदल गया। भीतर में कुछ भी नहीं बदला। नींद में सोये आदमी को आप कितनी ही गालियां दें, वह गुस्सा नहीं करता। क्या हम मान लें कि उसका गुस्सा समाप्त हो गया? नींद में वह अप्रामाणिक बर्ताव नहीं करता। नींद में वह उत्तेजना का शिकार नहीं होता तो क्या हम मान लें कि ये सब वृत्तियां समाप्त हो गयीं? नींद की अवस्था में, सुषुप्ति की अवस्था में अभिव्यक्ति नहीं होती। किन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि व्यक्तित्व बदल गया, रूपान्तरण घटित हो गया। हम यह मानते हैं कि आत्मा है। वह पुनर्भवी है। वह कर्म की कर्ता है। वह कर्म को बांधती है। कर्म अपना फल देते हैं। कर्मों को भोगना ही पड़ता है। जब हम समग्रता की दृष्टि से इन नियमों के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो लगता है कि वैज्ञानिक उपचार केवल सामयिक उपचार है, किन्तु समस्या का स्थायी या अंतिम समाधान नहीं है। उसका अंतिम समाधान है कि व्यक्ति तरंगातीत अवस्था में चला जाए। क्रोध या किसी भी वृत्ति की तरंगें पुष्ट होती हैं पुनरावृत्ति के द्वारा। क्रोध को क्रोध का सिंचन मिलता है तो वह पुष्ट होता है। क्रोध को क्रोध का सिंचन न मिले तो क्रोध का पौधा अपने आप मुरझा जाता है। अध्यात्म का सिद्धान्त है सामायिक का सिद्धान्त। अध्यात्म का सिद्धान्त है अपने आपको देखने का सिद्धान्त। यही तरंगातीत चेतना की भूमिका है। जब व्यक्ति तरंगातीत अवस्था में पहुंच जाता है तब न राग का तरंग रहता है और न द्वेष का तरंग रहता है। तब न प्रियता होती है और न अप्रियता होती है। उस स्थिति में क्रोध का तरंग जहां से उठता है, उस पर ही प्रहार नहीं होता, किन्तु जो उस तरंग को उठाने का उत्तरदायी है, उस पर प्रहार होता है। वैज्ञानिक उपकरणों का, उनके द्वारा उत्पादित औषधियों का प्रभाव मस्तिष्कीय स्तरों पर, स्नायु-संस्थान या नाड़ी-मंडल पर होता है, किन्तु इस तरंगातीत ध्यान का, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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