________________
अप्पाणं सरणं गच्छामि ३२५
साधु का अर्थ है-अपने जीवन की साधना। साधु की शरण में जाने का अर्थ है-अपने जीवन की साधना की शरण में जाना। जो व्यक्ति साधना की शरण में जाता है वह त्राण पा लेता है और जो साधना की शरण में नहीं जाता वह त्राण नहीं पा सकता। साधना की शरण में जाना भी सरल नहीं है। उसमें बड़ा भय लगता है। बहनें घंटों तक रसोईघर में बैठने से नहीं घबरातीं। इतना ताप सहन करना उनके लिए सहज-सा बन गया। पर एक घंटा ध्यान करने में उन्हें अपार कष्ट की अनुभूति होती है। इसीलिए लोग सोचते हैं कि ध्यान अपने आप हो जाए, कुछ करना न पड़े। जब वह सिद्ध होने लगेगा तब हम प्रयत्न करेंगे।
एक व्यक्ति तैरना सीखना चाहता था। वह तालाब पर गया। पानी में उतरा। पैर फिसल गया। डूबने लगा। एक व्यक्ति ने उसे पकड़ लिया। उससे कहा-कल फिर आना। धीरे-धीरे तैरना सीख जाओगे। उसने कहा-जब तक तैरना नहीं सीख जाऊंगा, तब तक तालाब पर नहीं आऊंगा।
बहुत सारे लोग इसी भाषा में सोचते हैं-जब तक ध्यान करना नहीं सीख लूंगा तब तक शिविर में नहीं जाऊंगा। उन्हें साधना करने में भय लगता है। आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है
__ मूढ़ात्मा यत्र विश्वस्तः, ततो नान्यद् भयास्पदम्।
यतो भीतस्ततो नान्यद्, अभयस्थानमात्मनः ।। मूर्च्छित चेतना वाला व्यक्ति जहां विश्वास करता है, उससे बड़ा खतरा कोई हो नहीं सकता। जहां त्राण है वहां वह जाना नहीं चाहता और जहां अत्राण है वहां वह निडर होकर जाता है। जिससे वह डरता है उससे बड़ा कोई त्राण नहीं है और जहां त्राण मानता है उससे बड़ा कोई खतरा नहीं है।
मूर्छा के कारण जीवन में ऐसे विपर्यय पलते हैं। अपनी शरण क्या?
* साधना की शरण में जाना दूसरे की शरण में जाना नहीं है। * धर्म की शरण में जाना दूसरे की शरण में जाना नहीं है। * यह सब अपनी ही शरण में जाना है। * अर्हत्, सिद्ध, साधु और धर्म-ये हमारे अस्तित्व के ही अंग हैं। इनकी
शरण में जाना अपने अस्तित्व की शरण में जाना है। अध्यात्म का सूत्र यही है-अपनी शरण में जाओ, दूसरों की शरण में मत जाओ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org