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________________ २२ अप्पाणं सरणं गच्छामि पुनरावृत्ति - यह चक्र निरन्तर चलता रहता है । वृत्ति जागी, प्रवृत्ति हुई । प्रवृत्ति ने मनुष्य को बांध दिया। अब पुनरावृत्ति होना अनिवार्य है। उसके बिना छुटकारा नहीं हो सकता। संस्कार संस्कार बनाता है । जो व्यक्ति एक बार करता है वह संभवतः बच जाता है । वृत्ति की प्रेरणा आती है, वह प्रवृत्ति तक नहीं पहुंच पाती है तो संभव है कि आदमी बच जाएगा। किन्तु वृत्ति जागी, प्रवृत्ति की तो पुनरावृत्ति करनी ही होगी, उसे रोका नहीं जा सकता। बार-बार उसकी आवृत्तियां होती रहेंगी । संस्कार पकड़ लेता है, ग्रस लेता है। आदमी संस्कारों से ग्रस्त होकर ही काम करता है, आवश्यकतावश काम में कम प्रवृत्त होता है । जिस संस्कार से चित्त एक बार ग्रस्त हो जाता है, उस संस्कार को दोहराना ही पड़ता है । वृत्ति - शोधन हमें शोधन करना है। शोधन कर्म का नहीं करना है, कर्मेन्द्रिय का नहीं करना है । हाथ एक कर्मेन्द्रिय है। उसका क्या शोधन हो सकता है? किसी ने किसी को चांटा मारा तो उसमें हाथ का क्या दोष है? क्या हाथ ने बुरा कर्म किया है? हाथ कुछ भी नहीं जानता । हाथ से चांटा मारने के पीछे जो हमारी क्रोध की वृत्ति है उसका शोधन करना है । हाथ का क्या शोधन होगा? हाथ चलता ही रहेगा। चांटे मारने में हाथ नहीं चलेगा तो वह प्रणाम करने में चलेगा, भोजन करने में चलेगा। हाथ का शोधन नहीं करना है, किन्तु हाथ को अनुचित कार्य करने में प्रेरित करने वाली वृत्ति का शोधन करना है। कर्म कर्म तब बनता है जब वृत्ति का शोधन होता है। कर्म के साधनों का शोधन नहीं होता, कर्म की प्रेरणा का शोधन हो सकता है। प्रेरणा का शोधन केवल मनुष्य ही कर सकता है, पशु नहीं कर सकता । यही मनुष्य और पशु के बीच की भेद-रेखा है। आदमी और पशु की परिभाषा हम इन शब्दों में कर सकते हैं कि जो वृत्ति का शोधन कर सकता है, वह होता है आदमी और जो वृत्ति का शोधन नहीं कर सकता, वह होता है पशु । पशु की पशुता चलती रहेगी, इसीलिए कि उसमें वृत्ति - परिष्कार की कोई संभावना नहीं है। मनुष्य पशुता से ऊपर उठ सकता है क्योंकि उसमें वृत्ति-परिष्कार की क्षमता है । आत्म-साक्षात्कार का पथ मनुष्य कर्म से अकर्म में जा सकता है। यह पथ है आत्म-साक्षात्कार का । इस पथ पर अनगिन चरण चले हैं चलते हैं और चलते रहेंगे। किन्तु जब इस दिशा में पहला चरण उठता है तब एक प्रकार की भावना होती है और जब चरण आगे बढ़ते हैं तब पूर्व भावना में परिवर्तन आने लगता है । मुझे लगता है कि जिस दिन कर्म से अकर्म की दिशा में प्रयाण हुआ, उस दिन एक प्रकार की भावना बनी थी, किन्तु बीच में भावना में बहुत बदलाव आ गया। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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