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वास्तविक समस्याएं और तनाव ३१५
की भी एक अवस्था होती है । जीवन भर आदमी मानता ही चले, जानने का प्रयत्न ही न करे, तो वह सत्य तक कभी नहीं पहुंच पाएगा। धर्म कहता है - मानने को समाप्त कर जानने की सीमा में प्रवेश करो और स्वयं सत्य को खोजो । प्रेक्षा की प्रक्रिया सत्य को खोजने की प्रक्रिया है । मैं कहूं-पदार्थ अनित्य है और आप इसे मानते चले जाएं, तो बहुत बड़ी भ्रान्ति मन में घर कर लेगी । किन्तु जब आप प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा के अभ्यास से शरीर - प्रेक्षा करेंगे, तो पता लगेगा कि कितने प्रकंपन हो रहे हैं । सारा का सारा स्पंदन ही स्पंदन है । जो प्रकंपन है, वह शाश्वत नहीं होता, नित्य नहीं होता । वह अनित्य होता है प्रेक्षा : स्व- अवगति
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जगत् में दो प्रकार के पदार्थ हैं - प्रकंप और अप्रकंप । सारा प्रकंप अनित्य है । प्रकंप आता है, नष्ट होता है। दूसरा आता है, नष्ट होता है। यह प्रकंपन का ज्ञान, अनित्य का बोध अपने अनुभव से जागे । शरीर- प्रेक्षा करने वाले को यह सहज अनुभव हो सकता है । यह स्वयं जानने की प्रक्रिया है । यही स्वयं सत्य को खोजने की प्रक्रिया है । ध्यान और अनुप्रेक्षा की प्रक्रिया इसे और गतिमान करती है 1
विसंबंध की चेतना
अनुप्रेक्षा का पहला सूत्र है -अनित्य अनुप्रेक्षा । हम इसका अनुभव करें, हम प्रेक्षा करते-करते इस सचाई तक पहुंचे कि जितने संयोग हैं वे सारे वियोग वाले हैं। अगर इस सचाई तक पहुंच जाते हैं, तो अशाश्वत को शाश्वत मानने की भ्रान्ति खंडित हो जाती है और पदार्थ के वियोग से होने वाले सारे संताप समाप्त हो जाते हैं। उससे नयी आदत और नये संस्कार का निर्माण होता है । जैसे पदार्थ के संबंध से एक आसक्ति का संस्कार बनता है और वह संस्कार पदार्थ के चले जाने पर दुःख देता है, वैसे ही पदार्थ से विसंबंध का संस्कार अनुप्रेक्षा के द्वारा निर्मित हो जाए, तो आदमी कभी संतप्त नहीं होगा। आदमी प्रतिदिन अनुप्रेक्षा के द्वारा इस सचाई का अनुभव करे कि वियोग पहला छोर है, संयोग दूसरा छोर है। वियोग पहला द्वार है, संयोग दूसरा द्वार है । उसे दोनों सचाइयां एक साथ प्रतीत होने लग जाएं। संबंध की भांति विसंबंध की आदत भी निर्मित हो जाए, तो आदमी यथार्थ के जगत् में जी सकता है और यथार्थ के जगत् में घटित होने वाली यथार्थ की समस्याओं का यथार्थ की भूमिका पर खड़े होकर सामना कर सकता है ।
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