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________________ चैतन्य का अनुभव २७६ नहीं है, वह उन लोगों का ही मानसिक प्रक्षेपण है। हम स्वयं मन में एक कल्पना कर लेते हैं, एक आकार बना लेते हैं। वह आकार पुष्ट होते-होते एक दिन साकार हो जाता है और कभी-कभी वह हमसे बात भी कर लेता है। वह निर्देश देने और पथ-प्रदर्शन करने भी लग जाता है। वह कुछ देने भी लग जाता है। यह सारा है मानसिक प्रक्षेपण, मानसिक आरोपण। यह हमारे ही मन की प्रतिक्रिया है। इस पद्धति का आलम्बन इसलिए लिया जाता है कि व्यक्ति में श्रद्धा और आस्था का निर्माण हो, उसमें सूक्ष्म सत्यों को जानने की तीव्र अभीप्सा जाग जाए। यह स्थूल से सूक्ष्म को जानने की प्रक्रिया है, किन्तु आत्मा जैसे अतिसूक्ष्म या परम-सूक्ष्म को जानने की प्रक्रिया नहीं है। यह अंतिम प्रक्रिया या समाधान नहीं है। निर्विचार-ध्यान आत्म-साक्षात्कार की दूसरी प्रक्रिया है-निर्विचार-ध्यान, निर्विचारसमाधि। जब समाधि विकल्पशून्य, चिन्तनशून्य होती है, जिसमें चैतन्य का अनुभव मात्र होता है, वह है निर्विचार समाधि। निर्विचार अवस्था में न चिन्तन होता है, न कल्पना होती है और न स्मृति होती है। न शब्द का आलंबन, न रूप का आलंबन। पदस्थ ध्यान भी नहीं, रूपस्थ ध्यान भी नहीं, पिंडस्थ ध्यान भी नहीं। तीनों ध्यान नहीं होते। सब छूट जाते हैं। केवल निर्विकल्प और निर्विचार अवस्था, अमन अवस्था होती है। मन समाप्त हो जाता है। उस स्थिति में शुद्ध चैतन्य का अनुभव होता है। उसी स्थिति में आत्मा का साक्षात्कार घटित होता है। से न रुवे, न सहे...अरूवी सत्ता। वह न रूप है, न शब्द है...अरूपी सत्ता है। आत्मा अपद है। वह पद के द्वारा नहीं जाना जा सकता-अपयस्स पयं णत्थि । शब्दातीत को शब्द से कैसे? अनेक लोग आत्मा को जानने के लिए तर्क का प्रयोग करते हैं, बुद्धि का व्यायाम करते हैं, कैसे जानेंगे? अपद को पद के द्वारा नहीं जाना जा सकता। जिसका शब्द के साथ कोई संबंध ही नहीं है उसे शब्द के द्वारा कैसे जाना जा सकता है? जो विकल्पातीत है उसे विकल्प के द्वारा नहीं जाना जा सकता। जो विचारातीत है वह विचारों के द्वारा नहीं जाना जा सकता। 'सव्वे सरा णियति-तक्का जत्थ न विज्जई-तर्क वहां है ही नहीं। आत्मा की सिद्धि के लिए अनेक तर्क दिये गए हैं। मध्यकाल में तर्कों का विकास हुआ और तर्कशास्त्र के अनेक ग्रन्थ लिखे गए। उन पंडितों ने आत्मा की सिद्धि के लिए प्रबल तर्क दिए। मैं मानता हूं कि वे सारे तर्क अनुभवशून्य हैं। बौद्धिक व्यायाम मात्र हैं। वे आत्मा तक नहीं पहुंचाते। आत्मा के खंडन में भी उतने ही तर्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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