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२७० अप्पाणं सरणं गच्छामि
मिलते हैं, उनमें हम व्यक्ति के सिर के पीछे गोलाकार पीले रंग का एक चक्र - सा देखते हैं । यह भामंडल है । यह प्रत्येक प्राणी में नहीं होता । विशिष्ट व्यक्तियों के ही होता है। दूसरा है आभामंडल । इसे ऑकल्ट साइन्स में 'ओरा' (Aura) कहते हैं । यह आभामंडल हमारे चरित्र का, हमारी भावधारा का प्रतिनिधित्व करता है । आभामंडल को देखकर व्यक्ति के चरित्र को जाना जा सकता है और व्यक्ति के चरित्र को देखकर आभामंडल को जाना जा सकता है। जो व्यक्ति चरित्रवान् है, उसका आभामंडल सशक्त होगा । उस पर दूसरों का प्रभाव नहीं हो सकेगा। दूसरे तत्त्व उस आभामंडल में प्रवेश नहीं कर सकेंगे ।
हम जिस दुनिया में जीते हैं वह संक्रमण की दुनिया है । एक व्यक्ति पर अनेक तत्त्व संक्रमण करते हैं। अनेक रूप-रंग आक्रमण करते हैं और आभामंडल को विचलित करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु जिनका चरित्र शुद्ध होता है, भावधारा निर्मल होती है, उनका आभामंडल विचलित नहीं होता । बाह्य आक्रमणों से वह आक्रान्त नहीं होता । उसमें इतनी क्षमता होती है कि जो आता है, टकराता है और वापस चला जाता है, भीतर प्रवेश नहीं पा सकता। एक चरित्रवान् व्यक्ति को कोई अभिशाप दे, उस पर कोई असर नहीं होगा ।
हमारा चरित्र और भाव जब निर्मल होता है तब इस संक्रमण की दुनिया में रहते हुए भी हम बाह्य प्रभावों से बच जाते हैं । चरित्र का बहुत बड़ा मूल्य है। आदमी सफल होता है और कभी-कभी प्रत्येक कार्य में सफल होता चला जाता है। वह नहीं जानता कि यह कैसे हुआ? यह सारा होता है भाव की शुद्धि और चरित्र की शुद्धि के द्वारा ।
एक बहुत बड़े योगी सन्त थे आनन्दघनजी । वे पहुंचे हुए सिद्धयोगी थे लोगों को पता चला कि ये सिद्धयोगी हैं। अब लोग अपनी-अपनी दुःख - गाथाओं को लेकर आते और दुःख - प्रतिकार की बात पूछते। आनन्दघनजी ने सोचा- यह क्या ? मेरी साधना का सारा समय यदि मैं इनके दुःख दूर करने में लगा दूं तो फिर साधना कब करूं? वे गांव को छोड़ जंगल में चले गए। वहां भी लोग पहुंच गए। आनन्दघनजी वहां से अज्ञात स्थान में चले गए। एक बार एक सुनार और एक बनिया- दोनों उनको ढूंढने निकले और भाग्यवश उन तक पहुंच गए। बहुत अनुनय-विनय किया। आनन्दघनजी का मन करुणा से भर गया । उन्होंने पूछा- क्या चाहते हो ? दोनों ने कहा- और कुछ नहीं, केवल स्वर्ण चाहते हैं। आनन्दघनजी बोले- अच्छा, मैं तुम्हें स्वर्ण-सिद्धि का मंत्र देता हूं । किन्तु मंत्र की साधना नहीं होगी। तुम्हें अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य का पालन करना होगा । संग्रह नहीं करना होगा। उन्होंने कहा- महाराज ! आप कितने भोले हैं। यदि संग्रह नहीं करना है तो हमें स्वर्ण-सिद्धि की क्या आवश्यकता है? यह नियम नहीं पल सकता, और सभी नियमों का पालन हम करेंगे। तब
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