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चित्त शुद्धि और शरीर - प्रेक्षा २३६
में ऐसी व्यवस्था है कि इस स्थूल शरीर में जितने केन्द्र बने हैं वे केन्द्र भी मलिन बने हुए हैं । हमारी चेतना मोह से ग्रस्त है, मूर्च्छित है इसलिए हमारा आनन्द का केन्द्र भी मूर्च्छित है, सोया पड़ा है। अनन्त आनन्द का सागर भीतर में लहरा रहा है, हम उसका एक कण भी उपलब्ध नहीं कर रहे हैं। पता ही नहीं चलता कि भीतर में कोई आनन्द है । हमारी असीम शक्ति है पर इतना अवरोध हो रहा है कि वह शक्ति काम नहीं कर रही है । शरीर प्रेक्षा के द्वारा ये तीन काम हो सकते हैं - चैतन्य - केन्द्र निर्मल हो सकते हैं, आनन्द केन्द्र जो सोया पड़ा है, मूर्च्छित है, वह जाग सकता है और शक्ति का संस्थान जो अवरुद्ध हो रहा है, विघ्न और बाधाओं से प्रताड़ित हो रहा है वह फिर सक्रिय हो सकता है और उसकी ज्योति प्रज्वलित हो सकती है। हम शरीर को देखना सीखें। देखने और जानने पर ये सारी बातें घटित हो सकती हैं । क्रोध, अभिमान, वासना, स्वार्थ-चेतना, ईर्ष्या, भय, द्वेष, घृणा - ये सारी वृत्तियां तब जागती हैं जब हमारा चित्त नाभि के आस-पास होता है । शरीर शास्त्र की भाषा में ज़ब एड्रीनल ग्रंथि के आस-पास चेतना काम करती है तब ये वृत्तियां जागती हैं। जब तक एड्रीनल सक्रिय नहीं होती, तब तक ये वृत्तियां नहीं जाग सकतीं। मनुष्य का चित्त ज्यादा नाभि से नीचे ही काम करता है, ऊपर काम नहीं करता, ऊपर नहीं रहता । उसे पता ही नहीं कि नीचे रहने से क्या होता है? हम इस सचाई को जान लें कि चित्त को अधिक से अधिक हृदय से ऊपर, कंठ से ऊपर, सिर तक रखना लाभदायक होता है। बार-बार वहीं रखें तो हमारी वृत्तियां समाप्त हो सकती हैं, स्वभाव बदल सकता है, व्यवहार बदल सकता है और चरित्र बदल सकता है । यह बहुत बड़ा रहस्य है व्यवहार और आचरण को बदलने का स्वभाव और आदतों को बदलने का।
चित्त की यात्रा चैतन्य- केन्द्रों पर
चित्त का यह स्वभाव है कि वह सिर से लेकर पैर तक चक्कर लगाता है । कभी ऊपर, कभी नीचे, सदा यह चलता रहता है। कभी हमें अचानक हिंसा की स्मृति आ जाती है, कभी द्वेष की स्मृति आ जाती है, कभी घृणा का विचार जाग जाता है, कभी अच्छा विचार जाग जाता है, कभी ऐसी उत्कट भावना परमार्थ की जागती है कि सब कुछ त्यागने की भावना आ जाती है। ऐसा क्यों होता है? वृत्तियां क्यों बदलती हैं? कभी किसी स्मृति का दरवाजा खुलता है और कभी किसी स्मृति की खिड़की खुलती है। क्यों खुलती रहती हैं? कौन भीतर बैठा है जो इन्हें खोलता रहता है? और कोई नहीं, यह चित्त की यात्रा जब-जब होती है, चित्त जिस ग्रन्थि से, जिस केन्द्र से, जिस साइकिक सेन्टर का स्पर्श करता है, जिसके साथ लीन होता है, उस समय वही चेतना और वही स्मृति जाग जाती है और वही विचय हमारे सामने प्रस्फुटित हो जाता है। इस
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