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२२. केवल-ज्ञान की साधना
मेरे सामने एक प्रश्न है कि मैंने दर्शन को बहुत मूल्य दिया, ज्ञान को कम मूल्य दिया; दर्शन की बहुत प्रशंसा की, ज्ञान की निन्दा की; दर्शन को एक उच्च शिखर पर चढ़ा दिया और ज्ञान को नीचे रसातल तक पहुंचा दिया। क्या ज्ञान का दर्शन से कम मूल्य है? क्या दर्शन ऊंचा और ज्ञान नीचा है? दर्शन का इतना उत्कर्ष और ज्ञान का इतना अपकर्ष क्यों? इस प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक है।
दर्शन की मैंने प्रशंसा इसलिए की कि वह अस्तित्व तक जाता है, केवल 'है' तक जाता है। उसमें कोई दूषण नहीं होता। दर्शन को कोई खतरा नहीं होता। दर्शन के सामने कोई समस्या नहीं होती। ज्ञान कोरे अस्तित्व 'तत्' तक नहीं जाता, विस्तार में जाता है, फैलता है, व्यापक बनता है। व्यापक बनने वाले को सदा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जितनी निर्मलता, जितनी पवित्रता, जितनी शचिता एक सीमा में रह सकती है, व्यापक बनने वाले में उतनी कभी संभव नहीं है। गंगोत्री गंगा की उद्गम-स्थली है। उसका पानी जितना पवित्र होगा, गंगा नदी का पानी उतना पवित्र नहीं होगा। ज्यों-ज्यों गंगा नदी का प्रवाह आगे बढ़ता है, उसमें नाना प्रकार के प्रदूषण मिलते जाते हैं। गांवों की गन्दगी, नालों की गंदगी, कारखानों का विषैला पानी-यह सब गंगा में मिलता जाता है। जो पानी की निर्मलता गंगोत्री की होती है वह गंगा की नहीं होती। जो निर्मलता एक सीमा में रह सकती है, वह विस्तार में नहीं रह सकती।
दर्शन केवल अस्तित्व एक सीमित है, कोरा 'है' का बोध है या केवल 'है' को जानता है। 'है' के परे दर्शन के जगत् में कुछ भी नहीं है। ज्ञान : विस्तार की व्याख्या
ज्ञान केवल अस्तित्व तक सीमित नहीं है। वह फैलता है तो विकल्पों के साथ फैलता है, आकार के साथ फैलता है। भगवान् महावीर ने दो शब्द दिए-साकार उपयोग और अनाकार उपयोग; साकार चेतना और अनाकार चेतना। एक चेतना में आकार होता है और एक चेतना में आकार नहीं होता। दर्शन की चेतना अनाकार चेतना है। उसमें कोई आकार नहीं होता। जब आकार नहीं होता तो कोई विकल्प नहीं होता। ज्ञान चेतना साकार होती है। उसमें आकार होता है, विकल्प होता है। जो ध्येय सामने आता है, ज्ञान उस आकार
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