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१७६ अप्पाणं सरणं गच्छामि
बीच में एक पर्दा डाल दिया। दोनों स्वतन्त्र रूप से निर्माण करते। कोई किसी को देख नहीं सकता। कोई किसी की नकल नहीं कर सकता । अपनी स्वतन्त्रता से बनाएं। पूरी व्यवस्था हो गई। चित्रशाला बन गई। राजा आया देखने के लिए। आधा खण्ड देखा। इतना भव्य, इतना आकर्षक, इतना सुन्दर, बहुत मनोरम। बड़ा प्रसन्न हुआ, साधुवाद दिया। पुरस्कार तो मिलेगा ही। अब दूसरे खण्ड में गया। जाकर देखा, कुछ भी नहीं। एक भी चित्र नहीं। पूछा-क्या किया तुमने? चित्र नहीं बनाया? क्या मखौल किया है? परिणाम क्या होगा, पता है तुम्हें? चित्रकार बोला, 'महाराज! मुझे पता है। मैं जानता हूं। आप आदेश दें अपने कर्मचारियों को कि पर्दा हटा दें। यह पर्दा बीच में न रहे' जैसे ही पर्दा हटा, सारी चित्रशाला जगमगा उठी। जो उस खंड में देखा वह सारा का सारा यहां दीख रहा है। राजा ने कहा-क्या तुमने उसके खंड को देखा है? नहीं, महाराज, कभी नहीं देखा। बीच में पर्दा था, आपकी आज्ञा थी, देखने कैसे जा सकता था? राजा ने कहा-'जो वहां है वही यहां है। सारा का सारा। एक भी कम नहीं, एक भी ज्यादा नहीं। राई भर का भी अन्तर नहीं। यह कैसे हुआ? बड़ा आश्चर्य है।' चित्रकार बोला-'महाराज, मैंने एक भी चित्र नहीं बनाया। केवल भींत की घुटाई की है। यह मेरी घुटाई की करामात है कि मैंने धरातल को इतना निर्मल बना दिया कि कोई भी हो इसमें प्रतिबिम्बित हो जाएगा। इसमें प्रतिबिम्ब लेने की क्षमता मैंने पैदा कर दी है।' एक चमत्कार हुआ। चित्र बनाना इतना चमत्कार नहीं था जितना यह चमत्कार कि पर्दा हो तब कुछ भी नहीं और पर्दा हटे तो सब कुछ हो जाए।
हमारे शरीर की भी यही दशा है कि जब तक ज्ञान का आवरण, दर्शन का आवरण, मोह का आवरण, अन्तराय का प्रतिरोध-ये रहते हैं, तब तक कुछ भी प्रतिबिम्बित नहीं होता। सत्य सामने होता है पर प्रतिबिम्ब उसका नहीं होता। साधक समाधि की साधना के द्वारा अपने शरीर के चैतन्य केन्द्रों की इतनी घुटाई कर देता है, इतना निर्मल बना देता है, उनके मल को इतना साफ कर देता है, इतनी निर्मलता ला देता है कि वहां सब कुछ प्रतिबिम्बित हो जाता है। चित्र बनाने की जरूरत नहीं। चित्र बनाने वाले बनाते हैं और उसके सामने सारे चित्र प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। समाधि का एक पहलू है-शरीर के चैतन्य-केन्द्रों को निर्मल करना। मन का संतुलन
समाधि का दूसरा पहलू है-मानसिक संतुलन। समाधि की साधना जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, मन का संतुलन बढ़ता जाता है। टेम्परेचर संतुलित होता चला जाता है। गर्मी का मौसम आने पर बहुत ताप नहीं बढ़ता और सर्दी का समय आने पर बहुत ताप नहीं घटता। ताप संतुलित रहता है। फिर वह
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