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________________ चित्त-समाधि के सूत्र (१) १५३ अच्छा वेश बना सकता है, जितनी अच्छी मुद्रा बना सकता है, हर आदमी तो उतनी अच्छी मुद्रा भी नहीं बनाना जानता, और उतना अच्छा वेश बनाना भी नहीं जानता, किन्तु जो बहुरूपिये भी होते हैं वे भी वेश की मर्यादा को जानते हैं। वे भी वेश की मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करते । सामायिक का वेश है और सामायिक की मुद्रा भी है परन्तु वैराग्य नहीं है तो जीवन में सामायिक घटित नहीं हो सकता, चैतन्य में सामायिक उतर नहीं सकता। वेश पर सामायिक उतरे, कोई परिवर्तन नहीं आयेगा । हमारी मुद्रा पर सामायिक उतरे, कोई परिवर्तन नहीं आयेगा । जब तक चैतन्य पर सामायिक नहीं उतरा, तब तक परिवर्तन नहीं आता । परिवर्तन तब शुरू होता है जब समता के भाव चैतन्य पर उतर जाए। वह उतर सकता है, वैराग्य की साधना के कारण । हमने वैराग्य की साधना की, पदार्थ के प्रति लगाव को कम किया और जीवन में समता का अवतरण शुरू हो गया, सामायिक होना शुरू हो गया । 1 तीसरा सूत्र है- - प्रसन्नता । जब हम वैराग्य का अभ्यास कर चुकते हैं और हमारे जीवन में वैराग्य घटित होने लग जाता है तब समता जीवन में घटित हो जाती है । वैराग्य आया, समता आयी, तब प्रसन्नता शुरू हो जाती है, चित्त की निर्मलता प्राप्त हो जाती है । चित्त में वैराग्य का अंकुर फूटा, चित्त में समता का अंकुर फूटा और चित्त में प्रसन्नता का अंकुर फूटा । वैराग्य के बिना, समता के बिना प्रसन्नता नहीं हो सकती । हर्ष एक बात है, प्रसन्नता दूसरी बात है । धन मिला, बड़ा हर्ष हो गया । प्रिय वस्तु का योग मिला, बड़ा हर्ष हुआ। हर्ष का दूसरा पहलू है शोक | जहां हर्ष होगा, दूसरे क्षण में शोक भी झांक सकता है। एक ओर 1 हर्ष झांक रहा है तो दूसरी ओर से शोक झांक रहा है। दुनिया के इतिहास में आज तक एक भी ऐसी घटना घटित नहीं हुई कि जिस व्यक्ति ने हर्ष का अनुभव किया हो, उसने शोक का अनुभव न किया हो । हर्ष और शोक, दोनों साथ-साथ चलते हैं। एक चित्र उभर जाता है तो लगता है यह हर्ष है । वह जब नीचे जाता है, दूसरा चित्र उभरता है तो लगता है शोक है। एक उभरता है, एक छिप जाता है। दूसरा उभरता है और पहला छिप जाता है । किन्तु वास्तव में हर्ष और शोक के बीच में कोई दूरी नहीं है। दोनों बिलकुल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । प्रसन्नता हर्ष भी नहीं है और प्रसन्नता शोक भी नहीं है । प्रसन्नता है - चित्त की निर्मलता। जब आकाश में न बादल होते हैं, न धूल होती है, तब कहा जाता है- 'आकाश बड़ा प्रसन्न है ।' हमारे चित्त पर जब किसी लाभ की घटा उमड़ती है, लाभ के बादल छा जाते हैं, बड़ा हर्ष होता है और जब कोई अलाभ की आंधी उतर आती है, बड़ा दुःख होता है, शोक होता है, किन्तु जब चित्त के आकाश पर न लाभ की घटा उमड़ती है, न अलाभ की आंधी उतरती है उस स्थिति में चित्त प्रसन्न होता है, निर्मल होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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