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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
राक्षस । सबके सब प्रभु नाम की नौका पर चढ़कर प्रभु के ही मधुमय निकेतन को प्राप्त कर लेते हैं।
दोनों भागवतीय स्तुतियों एवं वैदिक स्तुतियों में लक्ष्य का भी अंतर है। वैदिक ऋषि किसी कामना से धन-दौलत, भोग-ऐश्वर्य एवं सांसारिक अभ्युदय के लिए ही अपने उपास्य की अभ्यर्थना करता है, लेकिन भागवतीय स्तुतियों के भक्तों का एक मात्र लक्ष्य श्रीकृष्ण गुण गान या उनकी सेवा है। तभी तो कुन्ती असंख्य विपत्तियों की कामना करती है क्योंकि प्रभु दर्शन विपत्तियों में ही होता है । पितामह भीष्म मन, वाणी और काय से श्रीकृष्ण पादपङ्कज में ही अपने को प्रतिष्ठित कर देते हैं। वृत्रासुर, नलकुवरमणिग्रीव हजारों कान, हजारो हाथ और हजारो वर्ष की आयु इसलिए मांगते हैं कि वे प्रभु की सेवा कर सकें। वैदिक स्तोता भौतिक अभ्युदय एवं अध्यात्मिक शांति की अवाप्ति की अभिलाषा करता हुआ दिखाई पड़ता है लेकिन हमारा भागवतीय भक्त लौकिक कल्याण एवं लोक मंगल की अभीप्सा करते हैं। अधिक संख्यक भक्त सम्पूर्ण विश्व की विभूति को भी लात मारकर प्रभु चरण सेवा में ही अपने को धन्य समझते हैं। ये वाक्य स्वयं प्रभु के ही हैं-सुनिए उन्हीं के शब्दों में
न पारमेष्ठयं न महेन्द्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मपितात्मेच्छति मद्विनान्यत् ।'
यहीं तक ही नहीं, सम्पूर्ण जगत् के एक-एक पदार्थ का निषेध करतेकरते अन्त में स्वयं अपना भी निषेध कर भागवतीय भक्त श्रीकृष्ण स्वरूप ही हो जाते हैं। धन्य है भागवतीय भक्तों की सौभाग्यचारुता, उनकी महत्ता----- जिसे देखकर देवता लोग भी उद्घोष करते हैं-हजारों वर्षों की आयु से भारत भूमि पर अल्पायु होकर जन्म लेना श्रेष्ठ है, क्योंकि वहां के लोग क्षणभर में अपने पुण्य-पाप को उस परम दयालु भक्त-वत्सल श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर उन्हीं का हो जाते हैं
क्षणेन मयेन कृतं मनस्विनः सन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरेः॥
दोनों प्रकार की स्तुतियों में उपास्य देवों का भी अन्तर है। बहुतायत वैदिक देवता भागवत काल में आते-आते विलीन हो गये, उनके स्थल पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा विष्णु के विभिन्न अवतारों की प्रधानता हो गयी। भागवतों के परम उपास्य नंदनंदन गोकुलनाथ नटराज कृष्ण हो गए। १. श्रीमद्भागवत महापुराण ११।१४।१४ २. तत्रैव १०८७।४१ ३. तत्रैव, ५।१९।२३
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