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उपसंहार
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रामायणीय स्तोत्र से प्रभावित है । महाभारतीय स्तुतियां भी भागवतीय स्तुतियों का उपजीव्य हैं । कौरव सभा में द्रौपदी द्वारा की गई श्रीकृष्ण स्तुति सारे परवर्ती आर्तस्तोत्रों का उत्स है । लगभग सभी स्तुतियों पर गीता का प्रभाव परिलक्षित होता है । भागवतीय भीष्म स्तुति एवं प्रह्लाद स्तुति का मूल विष्णु पुराण की स्तुतियां हैं । इस प्रकार विभिन्न पूर्ववर्ती ग्रन्थों एवं स्तोत्रों का प्रभाव भागवतीय स्तुतियों पर लक्षित होता है ।
श्रीमद्भागवतमहापुराण में दीर्घ- लघु कुल मिलाकर १३२ स्तुतियां विभिन्न भक्तों द्वारा विभिन्न स्थलों पर अपने उपास्य के चरणों में समर्पित की गई हैं ।
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भागवतीय स्तुतियों के स्तोता समाज के विभिन्न वर्गों से संबद्ध हैं । देव, मनुष्य, पशु, तिर्यञ्च चारों प्रकार के भक्त अपने-अपने उपास्य की स्तुति करते हैं । देवों में ब्रह्मा, इंद्र, सूर्य, चन्द्र आदि हैं। मनुष्य योनि के सभी वर्गों से संबद्ध भक्त स्तुति में तल्लिन दिखाई पड़ते हैं । अर्जुन, उत्तरा, पितामह भीष्म, हस्तिनापुर की कुल रमणियाँ, ध्रुव, प्रह्लाद, पृथु, राजा अम्बरीष, रन्तिदेव, कंश कारागार में निबद्ध राजागण आदि भक्त राजवंश से संबद्ध हैं । श्रीशुकदेव, श्रीसूत, सनककुमारादि सर्वस्वत्यागी भक्त स्तुतिकर्म में संलग्न हैं। नारियों में कुन्ती, गोपियां, कुब्जा आदि हैं । गजेन्द्र पशुयोनि का प्रतिनिधित्व करता है। नागपत्नियां तिर्यञ्च योनि की हैं । यक्षादि भी प्रभु की स्तुति करते हैं । विद्याधर नलकुबर- मणिग्रीव प्रभु के उपकार से उपकृत होकर केवल प्रभु सेवा की ही याचना करते हैं ।
स्तुतियों में दर्शन के विविध तत्त्वों का विस्तृत विवेचन मिलता है । अद्वैतवाद की प्रतिष्ठापना की गई है । " एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति", "एकं सन्तः बहुधा कल्पयन्ति" आदि श्रुतिवाक्यों का स्पष्ट रूपेण स्तुतियों पर प्रभाव परिलक्षित होता है । अद्वय अखंड, अनन्त, अवाङ्गमनसगोचर, शाश्वत, सनातन, सत्यस्वरूप, परब्रह्म परमेश्वर उपाधि से रहित एवं अविकृत हैं । वही जगत् सृष्ट्यर्थ, भक्त-उद्धारार्थ एवं राक्षस हननार्थ नाम - गुणात्मक होकर सगुण रूप में विभिन्न अवतारों को धारण करता है ।
माया ईश्वर की सर्जनेच्छा शक्ति है । विविधाभिधानों से अभिहित यह प्रपंचात्मिका एवं बन्धनरूपा है । जीव, जो परमेश्वरांश ही है, इसी माया के प्रभाव से सांसारिक देह-गेह में फसकर अपना स्वरूप भूल जाता है । वह प्रभु भक्ति किंवा चरणशरणागति से माया का उच्छेदन कर प्रभुस्वरूप हो जाता है। अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है ।
विविधरूपासृष्टि ईश्वर की प्रपंचात्मिका माया का विलास है । जल बुद्बुद्वत् इसे क्षणभंगुर एवं सर्परज्जुवत् भ्रमात्मक बताया गया है ।
सृष्टि का कर्त्ता, धर्ता और संहारकर्ता सगुण नाम रूपात्मक ईश्वर
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