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७. श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्त्व, छन्द और भाषा
प्रबंधाकाव्यों में अनेक भावों की प्रधानता रहती है, लेकिन मुक्तक के लघु कलेवर में केवल एक ही भाव की अभिव्यक्ति समाहित रहती है। क्षणिक भावावेश में किसी वृत्ति अथवा वस्तु के आश्रय ग्रहण के बिना केवल एक ही भावना की अभिव्यक्ति स्वाभाविक रूप से होती है। संस्कृत वाड्मय में एक भावना प्रधान काव्यों का प्रणयन बहुशः हुआ है लेकिन पृथग किसी विधा के रूप में नामकृत नहीं है। ऐसी रचनाओं में गेय तत्त्व की प्रधानता रहती है। इसमें आत्मवाद या आत्मनिष्ठता की मुख्यता रहती है। गेयता, रसपेशलता रसात्मकता आदि गुण ऐसे काव्यों में सामान्य रूप से पाये जाते
संस्कृत काव्यशास्त्रकारों ने गीतिकाव्य नामक अलग काव्यविधा को स्वीकृत नहीं किया है । अरस्तु ने केवल गीतिकाव्य शब्द का उल्लेख किया है । परवर्ती भारतीय आचार्यों ने गीतिकाव्य का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया है। “गीति काव्य हृदय की गंभीर भावना का परिणमन है जो सहजोद्रेक पूर्ण प्राकृतिक वेग से निःसत होती है । तीवभावापन्नता के कारण गीतिकाव्य में रसात्मकता, सबल भावनाओं का स्वत: प्रवर्तित प्रवाह अथवा कल्पना द्वारा रुचिर मनोवेगों का सर्जन होता है । सापेक्षदष्टि अथवा संकीर्णदष्टि से कवि अपने व्यक्तित्व से अभिभूत होता है। अतः स्वतंत्रचरितों का सर्जन नही कर पाता । उसके पात्र उसके व्यक्तित्व का ही भारवहन करते हैं। प्रकारांतर से कवि अपना ही चरित्र का चित्रण करता है, निरपेक्ष दष्टि अथवा पूर्ण दष्टि से स्वभिन्न पात्रों की सृष्टि करता है, जिसका व्यक्तित्व स्वतत्र होता है । गीति प्रवृत्ति का मूलाधार आत्मवाद ही है ।'
उपर्युक्त कथन के समालोचना से स्पष्ट होता है कि गीतिकाव्य में आत्मनिष्ठता का समावेश आवश्यक है। कवि वैयक्तिक भावधारा तथा अनुभूति के अनुरूप लयात्मिका अभिव्यक्ति प्रदान करता है । वैयक्तिकता के साथ अबाधक कल्पना, असीम भावुकता, तथा निष्कर्षोपलब्धि की मुक्त भावधारा १. हिन्दी साहित्यकोश, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, पृ० २६२ २. इन साइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका, भाग १८, पृष्ठ १०७
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