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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
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दसवें स्कन्ध के द्वितीय अध्यायान्तर्गत कंश कारागार में देवों द्वारा कृत गर्भस्थ भगवान् की स्तुति में संसार को वृक्ष के रूप में आरोपित कर उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है ...
एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा । सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥
यह संसार एक सनातन वृक्ष है । इस वृक्ष का आश्रय है एक प्रकृति । इसके दो फल हैं--मुख और दुःख, तीन जड़े हैं--- सत्त्व, रज और तम, चार रस हैं.–धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इसके जानने के पांच प्रकार हैं-- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका, इसके छः स्वभाव हैं --पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं-रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । आठ शाखाएं हैं-पांच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार । इसमें मुखादि नवो द्वार खोडर हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कर्म, कृकल, देवदत्त एवं धनंजय ये दस प्राण ही दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं ... एक जीव और दूसरा ईश्वर।
इस प्रकार संसार का वृक्ष रूप में अभेद आरोप एकादश स्कन्ध में भी किया गया है। यथासंख्य अलंकार
यथासंख्य शब्द गुम्फ के विशेष क्रम की धारणा पर आधारित अलंकार है । आचार्य भामह के अनुसार जहां विभिन्न धर्म वाले पूर्व निर्दिष्ट अनेक पदार्थों का उसी क्रम से निर्देश हो तो वहां यथासंख्य अलंकार होता है। इसमें एक बार अनेक अर्थों का निर्देश कर पुनः उन्हीं अर्थों का क्रमिक अनुनिर्देश होता है । दण्डी के अनुसार उद्दिष्ट अर्थात् पूर्व उक्त पदार्थों का उसी क्रम से पीछे कहे हुए अर्थों के साथ अन्वय यथासंख्य, संख्यान या क्रम अलंकार है। मम्मट, रूय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्य भामह की तरह क्रम से पूर्व कथित वस्तुओं के साथ उसी क्रम से वस्तुओं का अन्वय दिखाया जाना यथासंख्य का लक्षण मानते हैं। यह अलंकार उस संदर्भ में आता है जहां प्रतिपादित पदार्थों का उसी क्रम से अन्वय होता है।
भागवतकार ने दार्शनिक तथ्यों को यथासंख्य अलंकार के द्वारा सर्वजनसंवेद्य बनाया है-- १. श्रीमद्भागवत १०.२.२७ २. भामह, काव्यालंकार २.८९ ३. दण्डी, काव्यादर्श २.२७६ । ४. मम्मट, काव्य प्रकाश १०.१०८
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