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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
मम्मट के अनुसार उपमान तथा उपमेय का अभेद आरोपित या कल्पित हो वह रूपक अलंकार कहलाता है। उपमा में उपमान-उपमेय में साधर्म्य का कथन किया जाता है पर रूपक में उपमान-उपमेय के साधर्म्य के आधार पर अभेदारोप किया जाता है।
श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में रूपक अलंकार की योजना सौन्दर्य की अभिव्यंजना, मनोभावों की स्पष्टाभिव्यक्ति, रसास्वादन की तीव्रता, भावों की प्रेषणीयता तथा कल्पित भाव साहचर्य का संकेत आदि के सिद्धि हेतु की गई है । भक्त हृदय की पवित्र भावनाओं को प्रभु के चरणों में समर्पण के लिए श्रीमद्भागवतीय स्तुतियों में अनेक स्थलों पर रूपक का कमनीय सौंदर्य अवलोकनीय है--
ये तु त्वदीयचरणाम्बुजकोशगन्धं, जिघ्रन्ति कर्णविवरैःश्रुतिवातनीतम् । भक्त्या गृहीतचरणः परया च तेषां,
___ नापैषि नाथ हृदयाम्बुरुहात्स्वपुंसाम् ॥ मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूपी वायु से लायी हुई आपके चरण रूप कमलकोश की गन्ध को अपने कर्णपुटों से ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनों के हृदय-कमल से आप कभी दूर नहीं होते क्योंकि पराभक्ति रूप डोरी से आपके पादपद्मों को बांध लेते हैं । उपरोक्त श्लोक में वेद में वायु का, चरण में कमलकोश के गन्ध का, हृदय में कमल का तथा पराभक्ति में डोरी का आरोप किया गया है।
एक रूपक के द्वारा भगवान् सूकर का अद्भुत सौन्दर्य अवलोकनीय
रूपं तवैतन्नु दुष्टकृतात्मनां दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् । छन्दांसि यस्य त्वचि बहिरोम स्वाज्यं दृशि त्वङ घ्रिषु चातुहोत्रम् ॥
देव ! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि यह यज्ञ रूप है। इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्य, उद्गाता और ब्रह्मा इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं। इस श्लोक में भगवान् सूकर के देह में यज्ञ का आरोप किया गया है। त्वचा में गायत्री आदि छन्दों का,
रोमावली में कुश का, नेत्रों में घृत का तथा चार पैरों में चारों ऋत्विजों के कर्मों का वर्णन किया गया है। इसी जगह दो अन्य श्लोकों में भगवान् सूकर का यज्ञ रूप में प्रतिपादन किया गया है।
१. मम्मट, काव्यप्रकाश १०.१३९ २. श्रीमद्भागवत ३.९.५ ३. तत्रैव ३.१३.३५
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