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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
राजा पृथु भगवान् की स्तुति कर रहे हैं ----पुण्य कीर्ति प्रभो ! आपके चरणकमल मकरन्द रूपी अमृत कणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु निकलती है, उसी में इतनी शक्ति है कि वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोगियों को पुन: तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरों की आवश्यकता नहीं है।
यहां प्रीति स्थायी भाव है, भगवान् श्रीहरि आलम्बन विभाव तथा महापुरुषों के मुख से निःसृत भगवद्गुणादि का श्रवण उद्दीपन विभाव है। भगवत्गुण कथा श्रवण के अतिरिक्त अन्य सारे विषयों का परित्याग अनुभाव है । हर्ष, समत्वभाव आदि संचारी भाव हैं । गौरव प्रीति का उदाहरण
___ गौरव प्रीति जनित प्रीतिरस में भगवान को किसी प्रकार का सम्बन्धी या आत्मीय स्वीकार कर उनकी सेवा की जाती है
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः ।।
यहां कुन्ती भगवान् की स्तुति कर रही है-श्रीकृष्ण ! वासुदेव ! देवकीनन्दन ! नन्दगोप कुमार ! गोविन्द ! आपको बार-बार नमस्कार है।
__ यहां श्रीकृष्ण को अपने निकटतम आत्मीय मानकर स्तुति की गई है इसलिए गौरवप्रीति का उदाहरण है। (३) प्रेयोभक्तिरस
सख्य रूप स्थायी भाव अपने अनुरूप विभावादि के द्वारा सहृदयों के चित्त में पुष्टि को प्राप्त होकर प्रेयोभक्ति रस कहलाता है। दो समान व्यक्तियों की भयरहित तथा विश्वासरूप जो रति होती है वही सख्य नामक 'स्थायी भाव है।
कुमार पौगण्ड और किशोर अवस्था के श्रीकृष्ण एवं उनके सखा इसके आलम्बन हैं । व्रज में मरकतमणि के समान श्यामसुन्दर शरीर, कुन्द के समान निर्मल हास्य, चमकता हुआ पीताम्बर, बनमाला, जादूभरी वंशी-ये सबके सब प्रेयोभक्ति रस की धारा प्रवाहित करते हैं।
श्रीकृष्ण की कुमार, पोगण्ड, किशोर अवस्थाएं, उनकी मुनिजनमनमोहक लोकोत्तर सुन्दरता, वंशीध्वनि, विनोदप्रियता, मधुर भाषा, श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाएं, उनके द्वारा राजा, देवता, अवतार, हंस आदि का अनुकरण, सखाओं के साथ अत्यन्त प्रेमपूर्ण व्यवहार आदि सख्य रस के उद्दीपक विभाव हैं। इन बातों के श्रवण, कीर्तन, स्मरण तथा चिन्तन से प्रेयोभक्तिरस प्रकट होता है । १. भक्तिरसामृतसिन्धु-पश्चिमविभाग ३.१
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