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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १८३ निराकार ब्रह्म को भी आलम्बन स्वीकार किया जा सकता है ।
सर्वत्र भगवत्कृपा का अनुभव चरणरज की प्राप्ति, भगवत्प्रसाद का सेवन, भक्तिसंगीत, वंशी आदि की ध्वनि का श्रवण भगवान् का मन्दमुस्कान एवं चित्तवन, भगवत्गुणादि का श्रवण आदि उद्दीपन विभाव हैं । इन विभावों के द्वारा प्रीति आदि भाव उत्पन्न होकर-भगवदाज्ञा का सहर्ष स्वीकार जीव मात्र के प्रति ईर्ष्या का अभाव एवं दया भाव, भगवद्भक्तों से मैत्री आदि अनुभावों के द्वारा प्रतीति की योग्यता प्राप्त कर हर्षगर्वादि संचारी भावों से पुष्ट होकर रसदशा को प्राप्त होते हैं, उसे ही प्रीतिभक्तिरस कहते
भगवान् के ऐश्वर्य और सामर्थ्य के ज्ञान से जो आदरपूर्वक संभ्रमप्रीति का नाम धारण करता है, वहीं दास्यरस या प्रीतिभक्तिरस का स्थायीभाव है। यह प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई प्रेम, राग एवं स्नेह का रूप धारण करती है। यह प्रीतिभाव इतना दृढ़ हो जाता है कि ह्रास की आशंका नहीं रहती, चाहे भगवान् क्षीरसागर में अवस्थित कर दे या नरक में डाल दे .. कहीं भी चित्त में विकार उत्पन्न नहीं होता। सम्पूर्णभाव से अपना सब कुछ उसी महिमामय के चरणों में समर्पित कर भक्त निश्चित हो जाता
अहं हरे तव पादैकमलो दासानुदासोभवितास्मि भूयः ।
मनः स्मरेतासुपतेर्गुणांस्ते गृणीत वाक कर्म करोतु कायः॥'
सर्वात्मना वृत्रासुर भगवच्चरणों में अपने को समर्पित कर देता है । वह भगवद्दासों का दास बनना चाहता है। एक क्षण भी प्रभु का वियोग उसे असह्य है। यहां भगवद्विषयिणी प्रीति ही स्थायी भाव है। भगवान् भक्तवत्सल, सगुणरूप आलम्बन विभाव, तथा भगवत्कृपा का अनुभव, भगवदासों की संगति आदि उद्दीपन विभाव हैं। सर्वात्मना प्रभु चरणों में समर्पण, भगवत्भक्तों की दासता की स्वीकृति आदि अनुभाव हैं । रोमांच सात्त्विक भाव, हर्ष, निर्वेद आदि संचारिभाव हैं।
न यस्यदेवा ऋषयः पदं विदुः जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमोरितुम् ।
यथा नटस्याकृतिभिविचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥ .
यहां भयप्रीति का उदाहरण है । अन्य उदाहरण ----
स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतो भवत्पदाम्भोजसुधाकणानिलः ।
स्मृतिं पुनविस्मृततत्त्वम॑नां कुयोगिनां नो वितरत्यलं वरैः ।। १. श्रीमद्भागवत ६।११।२४ २. तत्रैव ८.३ ६ ३. तत्रैव ४.२०.२५
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