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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना
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- मनःसंवेग मूलप्रवृत्तियां स्थायी भाव (१) भय पलायन, आत्मरक्षा भय
भयानक रस (२) क्रोध युयुत्सा
क्रोध
रौद्ररस (३) घृणा निवृत्ति, वैराग्य जुगुप्सा
बीभत्स रस (४) करुणा शरणागति
शोक
करुणरस (५) काम कामप्रवत्ति
रति
शृंगाररस (६) आश्चर्य कौतूहल, जिज्ञासा विस्मय अद्भुत रस (७) हास आमोद
हास
हास्यरस (८) दैन्य आत्महीनता निर्वेद शान्तरस (९) आत्मगौरव,
उत्साह आत्माभिमान उत्साह वीररस (१०) वात्सल्य, पुत्रैषणा वात्सल्य, स्नेह वात्सल्य रस '
स्नेह स्थायी भावों की संख्या
नाट्यशास्त्र, काव्यप्रकाश आदि ग्रन्थों में स्थायी भावों की संख्या आठ मानी गई है। रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा या घृणा और विस्मग । प्रकारान्तर से शम को भी स्थायी भाव के रूप में स्वीकृत किया गया है।' दशरूपकार ने भी इसी मान्यता को उपस्थिापित किया । साहित्य-दर्पण में भी इन्हीं नौ स्थायी भावों को स्वीकारा गया है।
भक्त प्रवर श्रीलरूपगोस्वामी ने अपने "भक्तिरसामृतसिन्धु' नामक ग्रन्थ के दक्षिण विभाग के पंचम लहरी में स्थायी भावों का विस्तृत विवेचन किया है । उन्होंने श्रीकृष्ण विषयक "रति' को ही स्थायी भाव मानकर मुख्या तथा गौणी भेद से दो रूपों में विभाजित किया है। मुख्या रति के छः भेद - शान्ति, शृद्धा, प्रीति, सख्य, वात्सल्य तथा प्रियता एवं गौणी के सात भेदहास, विस्मय, उत्साह, शोक, क्रोध, भय तथा जुगुप्सा, कुल मिलाकर १३ स्थायी भाव स्वीकृत किये गये हैं। विभाव
रसानुभूति के कारणों को विभाव कहते हैं। लोक में जो अनादि१. काव्यप्रकाश ४.४७ २. दशरूपक ४.३५ ३. साहित्य दर्पण ३.१७५ ४. भक्तिरसामृत सिन्धु-दक्षिण विभाग-पंचम लहरी
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