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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
अपना कार्य करके विलीन हो जाते हैं, किन्तु कभी नष्ट नहीं होते।' जो अपने प्रतिकूल भावों तथा अनुकूल भावों से विच्छिन्न न होकर सभी प्रतिकूल भावों को आत्मरूप बना लेता हो वह स्थायी भाव है। समुद्र जैसे सभी को अपने रूप का बना लेता है स्थायी भाव भी वैसे ही अन्य भावों को अपने अनुरूप बना लेता है। रूप गोस्वामी ने स्थायीभावों को "उत्तमराजा" संज्ञा से अभिहित किया है। जो भाव अनुकल एवं प्रतिकूल समस्त भावों को अपने वश में कर उत्तमराजा के समान सुशोभित होता है वह स्थायी भाव है। मनोविज्ञान और स्थायीभाव
___ संस्कृत साहित्य शास्त्र में निरूपित स्थायी भाव मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर पूर्णतः अवस्थित है । हमारा ऋषि जितना मनस्तत्त्व का सुन्दर एवं सूक्ष्म विश्लेषण करता है उतना शायद ही किसी अन्य साहित्य में हो पाया हो । आधुनिक मनोविज्ञान, जिनको मूल प्रवृत्तियों से सम्बद्ध "मनःसंवेग" की संज्ञा से अभिहित करता है, उन्हीं को साहित्य शास्त्र में स्थायी भाव नाम से कहा गया है । नवीन मनोविज्ञान के "मनःसंवेग" और प्राचीन साहित्य शास्त्र के "स्थायी भाव" एक ही शब्द के पर्याय हैं। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मंगगल ने चौदह प्रकार की मूल प्रवृत्तियां और उनसे सम्बद्ध चौदह मनःसंवेग माने हैं । मूल प्रवृत्ति की परिभाषा करते हुए उन्होंने लिखा
मूल प्रवृत्ति वह प्रकृति-प्रदत्त शक्ति है जिसके कारण प्राणी किसी विशेष पदार्थ की ओर ध्यान देता है और उसकी उपस्थिति में विशेष प्रकार के संवेग या मनःक्षोभ का अनुभव करता है ।।
मगडूगल ने पहले चौदह प्रकार की मूल प्रवृत्तियों का निर्देश कर तत्सम्बन्धित मनःसंवेगों को गिनाया है । लेकिन सूक्ष्मतया विचार करने पर प्रतीत होता है कि मूल प्रवृत्तियों के प्रेरक या कारण तत्त्व "मनःसंवेग" ही हैं अतएव प्रथम व्याख्यान "मन:संवेग" का ही होना चाहिए । “मन:संवेग" ही मूल प्रवृत्तियों को उत्प्रेरित करते हैं। क्रम से मनःसंवेग, मूल प्रवृत्तियां तत्सम्बन्धित स्थायी भाव एवं रस की तालिका इस प्रकार
१. अभिनव गुप्त-- अभिनव भारती २. सा० द० ३.१७४, दशरूपक ४.३४ ३. रूपगोस्वामी, भक्ति रसामृत सिन्धु-दक्षिण विभाग, पंचमी लहरी-१
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