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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन संकर्षण (बलराम)
अनन्तनामाख्यात पाताल में विद्यमान भगवान की तामसी नित्य कला द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है इसलिए उसे संकर्षण कहा जाता है। योग माया ने इसी अनन्तकला को देवकी के गर्भ से खींचकर रोहिणी के गर्भ में प्रतिष्ठापित किया था अतएव उसे संकर्षण कहते हैं, लोकरंजन करने के कारण राम और बलवानों में श्रेष्ठ होने के कारण बलभद्र हैं । आप अनन्तशक्तिमान्, अनन्तऐश्वर्यशाली और शरणागतवत्सल हैं।' आप सारे लोकों के आधार शेषजी हैं।'
आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के एक मात्र कारण हैं । सम्पूर्ण जगत् आपका खेलस्वरूप है।" आप अविनाशी, जगन्नियन्ता एवं योद्धाओं में अग्रणी हैं। आप अनन्त, सर्वव्यापी एवं जगदाधार हैं ।
आप भक्तों के परमशरण्य हैं। कामनाओं के दाता एवं उनके रक्षक हैं । आपके दर्शन से ही मनुष्यों के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और नीच चांडाल भी संसार से मुक्त हो जाता है ।।
इस प्रकार भगवान् संकर्षण का चरित्र संक्षिप्त होते हुए भी लोकमंगलकारी है। सम्पूर्ण धरती का भार अपने ऊपर धारण कर अचल भाव से स्थित रहते हैं। समस्त प्रपंच का कारण होते हुए भी स्वयं प्रपंच रहित हैं। दृसिंह
देव, मनुष्यादि जीवों के भय निवृत्यर्थ भगवान् विष्णु ही नृसिंह के रूप में अवतरित होते हैं । सेवक प्रह्लाद की रक्षा के लिए, ब्रह्मा की वाणी को सत्य करने के लिए तथा सभी पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिए भगवान् खम्भे में प्रकट होते हैं। उनका आधा शरीर मनुष्य का एवं आधा सिंह का था इसलिए वे नसिंह कहलाते हैं ।
उनका स्वरूप अत्यधिक भयावह है । तपाये हुए सोने के समान भयानक पीली-पीली आंखें हैं। जंभाई लेने से गर्दन के बाल इधर-उधर १. श्रीमद्भागवत ५.२५.१ २. तत्रैव १०.२.१३ ३. तत्रव १०.६५.२७ ४. तत्रैव १०.६८.४४ ५. तत्रैव १०.६८.४५ ६. तत्रैव ६.१६.४४ ७. तत्रैव २.७.१४ ८. तत्रैव ७.८.१८
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