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दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
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और रक्षक हैं ।' शरण में आये हुए जीवों के दुःखहर्ता हैं
विधेहि तन्नो वृजिनाद्विमोक्षं प्राप्तावयं त्वां शरणं शरण्यम् ॥ ___ आप प्राणदाता एवं कामदाता हैं । आप अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर वाणी को शक्ति देते हैं एवं हस्तपादादि इन्द्रिय एवं प्राणों को चेतनता प्रदान करते हैं। आपके उत्तम चरण सकाम पुरुषों को सम्पूर्ण पुरुषार्थों को प्राप्ति कराने वाले हैं।
माया आपकी निज सहचरी है। यद्यपि आप निर्विकार, चैतन्य, परम आनन्द स्वरूप हैं परन्तु माया के आश्रय से जगत् को स्वीकार करते हैं। माया के द्वारा अपने स्वरूप को छिपाये रखते हैं जिस कारण सामान्य जन के लिए दुख ग्राह्य है । आप मायापति होते हुए भी उससे अलग साक्षी मात्र हैं । प्रकृति का कार्य आपका नहीं होता हुआ भी माया के कारण आप ही में भासित होता है। वस्तुत: आप माया से सर्वथा असंपृक्त, विकाररहित एवं सर्वतन्त्रस्वतन्त्र हैं। आप इन्द्रिय के विषयों से परे', सर्वव्यापक एवं सर्वसमर्थ हैं। आप अज्ञानापास्तक संसार के नियामक, साक्षी, स्वयंप्रकाश, ज्ञानस्वरूप एवं योगीजनग्राह्य हैं। आपका भक्तों के क्लेश हारक स्वरूप प्रसिद्ध है।
आप सम्पूर्ण जगत् के कारण तथा आश्रय स्थान हैं। सारा प्रपंच आप ही से उत्पन्न होता है और आपही में विलीन हो जाता है। प्रलयकाल के घनान्धकार में केवल आपही शेष रह जाते हैं ।
आप भक्तों के परमलक्ष्य हैं । भक्तजन सब कुछ परित्यागकर आपकी चरणरज की ही कामना करते हैं-वह वैसा कुछ भी नहीं चाहता जहां पर प्रभु चरणरज की प्राप्ति न हो।"
वृत्रासुर त्रैलोक्य के ऐश्वर्य का परित्याग कर केवल भगवच्छरणागति की ही याचना करता है--
१. श्रीमद्भागवत ४.७.३०,४२ २. तत्रव ४.८.८१ ३. तत्रैव ४.९.६ ४. तत्रैव ४.७.२९ ५. तत्रैव ४.७.३४,३९, ४.२०.२९ ६. तत्रैव ४.७.२६, ४.३.२४ ७. तत्रव ४.९.१३, ४.३०.२२ ८. तत्रैव ८.१७.२६ ९. तत्रैव ८.३.२२,२४ १०. तत्रव ४.२०.२४
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