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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
आत्मा हैं ।' आप अग्निवत् अपनी अचिन्त्यशक्ति से घट-घट में व्याप्त हैं।' भक्तजन आपही के विभिन्न स्वरूपों की उपासना करते हैं क्योंकि आपही समस्त देवताओं के रूप में और सर्वेश्वर भी हैं। ७. महारथी के रूप में
श्रीमद्भागवतीय स्तुतियों में भगवान श्रीकृष्ण के युद्धनेतस्वभाव पर भी प्रकाश पड़ता है । आप एक कुशल योद्धा तथा महाभारत युद्ध में अर्जुन सेना के सूत्रधार थे । भीष्म स्तुति में भगवान् के भयंकर स्वरूप का दर्शन होता है। घोड़ों की टाप से उत्पन्न रज द्वारा मुखमण्डल पर लटकने वाली अलके मलिन हो गयी हैं। आप सुन्दर कवच से मण्डित हैं तथा कौरवों के आयुहर्ता हैं। ८. सर्वश्रेष्ठ काल
भगवान् काल के भी काल हैं। निमेष से लेकर वर्ष पर्यन्त तक सम्पूर्ण आपकी लीला मात्र है। आपही सर्वशक्तिमान हैं। ६. निलिप्त
इन्द्रियगोचर एवं आनन्दस्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आप गुणों का आश्रय होकर भी निलिप्त एवं साक्षी हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण
और तमोगुण रूप शक्तियों से सृष्टि की रचना, पालन एवं संहार करते हैं फिर भी उनसे असंपृक्त रहते हैं।' जीवों पर अनुग्रह करने के लिए आप अवतार लेते हैं परन्तु जीव-जगत् से आप सर्वथा परे हैं।' १०. मायापति
स्तुतियों में भगवान् मायापति के रूप में भी चित्रित किए गये हैं। माया उन की निज शक्ति है जिसके आधार पर वे विभिन्न प्रकार की लीलाओं का सम्पादन करते हैं । माया के कारण ही जगत् विमोहित होता है। आप सर्वत्र विद्यमान होते हुए भी माया के द्वारा अपने स्वरूप को छिपाये रहते हैं। अनादिरात्मा निर्गण प्रकृति से परे आप सिसृक्षा से वैष्णवी माया को स्वीकृत करते हैं। विश्व के निर्माता, सर्वव्यापक, अनन्त श्रीकृष्ण १. श्रीमद्भागवत १०.३७.१२ २. तत्रैव १०.७०.३७ ३. तत्रैव १०.१०.३० ४. तत्रैव १०.३.१७, १०.३.१३ ५. तत्रैव १०.४०.१२ ६. तत्रैव १०४८.२१ ७. तत्रैव १०.२७.५ ८. तत्रैव १.८.१९ ९. तत्रैव ३.२६.४
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