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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
स्वरूप राक्षसों का विनाश कर उन्हें अलभ्य मुक्ति प्रदान की। दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध और जो आपसे सर्वदा दढ़ वैर भाव रखते हैं, उनका भी आप उद्धार करते हैं। जगत् के नियन्त्रण करने के लिए दण्डधारण करते हैं तथा अभिमानियों के मद को मदित करते हैं। जो ऐश्वर्यमद, धन सम्पत्ति से अन्धा होकर अपने श्रेयस् मार्ग को भूल जाता है उनका भी आप उद्धार करते हैं।' ४. शरणागत वत्सल
सम्पूर्ण संसार का सर्वात्मना परित्याग कर आये शरणागतों का आप शरण्य हैं, समस्त जीवों के आश्रय हैं। शरणापन्न जीवों के अभयदाता हैं। आपके स्पर्श मात्र से ही भव-बन्धन खण्डित हो जाता है।
आप उन्हीं को दर्शन देते हैं जो अकिंचन हैं। आप प्रेमी भक्तों के परम-प्रियतम, अकारण हितैषी एवं कृतज्ञ हैं---
भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात् ।'
आप शरीरधारियों के परम सुहृद्, परम मित्र एवं परम प्रियतम हैं।' भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिए उसी के इच्छानुसार आप अपने को प्रकट करते हैं। आप दीनजनों के हितैषी एवं शरणागतों के संसारभय को मिटाने वाले हैं।" अनेक संकटों से अपने भक्त जनों की रक्षा करते हैं ।१२
संसार चक्र से डरकर भक्तजन आपके शरण में आते हैं ।" मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत जीव आपके पादपंकज में आकर परमशांति का का अनुभव करते हैं क्योंकि मृत्यु भी आपसे भयभीत होकर भाग जाती है।"
१. श्रीमद्भागवत १०।२७।९ २. तत्र व १०१०१४१ ३. तत्र व १०२७६ ४. तत्र व १०।२७११६ ५. तत्र व १०१४०।३० ६. तत्रैव १०१५९।३१ ७. तत्र व १०८।२६ ८. तत्रैव १०४८।२६
९. तत्रैव १०।२९।३२ १०. तत्रैव १०.५९।२५ ११. तत्रैव १०।८५११९ १२. तत्रैव १८२४,१०.३१.३ १३. तत्र व १०॥३११५ १४. तत्रैव १०१३।२७
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