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भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण
ऋषि नारायण, महात्मा नर, विश्वेश्वर, विश्व रूप और सर्वभूतात्मा भगवान् को हम नमस्कार करते हैं।'
भगवान् स्वधाम गमन की तैयारी कर रहे थे। उस समय सभी देवगण भगवान् की स्तुति करते हैं-स्वामी ! २ कर्मों के फंदों से छूटने की इच्छा वाले मुमुक्षुजन भक्ति भाव से अपने हृदय में जिसका चिन्तन करते हैं, आपके उसी चरण कमलों को हमलोगों ने अपने बुद्धि, इन्द्रिय, मन और वाणी से नमस्कार किया है। अजित ! आप मायिक रज आदि गुणों में स्थित होकर इस अचिन्त्य नामरूपात्मक प्रपंच की त्रिगुणमयी माया के द्वारा अपने आप में ही रचना करते हैं, पालन एवं संहार करते हैं।
सोलहवें अध्याय में उद्धव श्रीकृष्ण की स्तुति करते हैं। भगवत्विभूतियों को जानने की कामना से उद्धव भगवान् की स्तुति करते हैं--- भगवान् आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त । आप आवरणरहित अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों एवं पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलय के कारणभूत आप ही हैं। परन्तु जिन लोगों ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते । आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता ऋषि लोग ही करते हैं।' द्वादश स्कंधगत स्तुति-सम्पदा
प्रथम स्तुति इस स्कन्ध के छठवें अध्याय में ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा भगवान् भुवन भास्कर को समर्पित है। गुरु की अपेक्षा अत्यधिक विद्या अजित करने के लिए याज्ञवल्क्य इस मन्त्र द्वारा सूर्य नारायण की उपासना करते हैं -ॐ नमो भगवते आदित्यायाखिल जगतामात्मस्वरूपेण कालस्वरूपेण चतुविधभूतनिकायानां ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तानामन्तहृदयेषु'""लोकयात्रामनुवहति ।
मार्कण्डेय ऋषि जब तपस्या कर रहे थे तब उन पर कृपावर्षा करने के लिए भगवान् नर-नारायण प्रकट हुए। उचित आतिथ्य सत्कार के बाद चरणों में शिरसा प्रणाम कर ऋषि मार्कण्डेय नर-नारायण की स्तुति करते
१. श्रीमद्भागवत ११३५।२९-३० २. तत्रैव ११।६।७-१९ ३. तत्रैव १११६७ ४. तत्रैव ११।६।१-५ ५. तत्रैव ११।१६।१-२ ६. तत्रैव १२।६।६७-७२ ७. तत्रैव १२।६।६७
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