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भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण ११५ उपकृत होकर उनकी स्तुति करता है ---भक्तवत्सल । महायोगेश्वर, पुरुषोत्तम ! मैं आपकी शरण में हूं। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरों के परमेश्वर ! स्वयं प्रकाशमान परमात्मन् , मुझे जाने के लिए आज्ञा दीजिए।
केशी और व्योमासुर से मुक्त देवलोग जब श्रीकृष्ण की अर्चना कर रहे थे तब परमभागवत नारदजी आकर एकांत में श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे । नारद ऋषि भगवान् के लोकमंगलकारी स्वरूप का प्रतिपादन करते
जल के अन्तर्गत भगवान् का अपूर्व रूप निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानंद से आप्यायित हो गया। वे साहस बटोरकर भगवान् की स्तुति करने लगे। हे प्रभो! आप समस्त कारणों के परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभि-कमल से ब्रह्माजी का आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत् की सष्टि की है । मैं आपके चरण कमलों में नमस्कार करता हूं।' कुब्जा के उद्धार के बाद कृष्णबलराम अकर के यहां पधारते हैं। मनुष्यलोकशिरोमणि को अपने घर पधारने पर अक्रूर धन्य हो गये । गद्गद् कण्ठ से श्रीकृष्ण और बलराम की स्तुति करने लगे .... दिष्टया जनार्दन भवानिह नः प्रतीतो योगेश्वरैरपि दुरापगतिः सुरेशः। छिन्ध्याशु नः सुतकलनधनाप्तगेह देहादिमोहरशनां भवदीयमायाम् ॥
भगवान जब सुदामा मालाकार के यहां पहुंचे तो वह माली समस्त पुष्पमालाओं को जिन्हें उसने कंश के लिए बनाया था, प्रभु को समर्पित कर देता है और तदुपरांत उनकी स्तुति करता है। भक्त सुदामा प्रभु से वरदान के रूप में अचला भक्ति की याचना करता है... प्रभो ! आप ही समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। सर्वस्वरूप ! आपके चरणों में मेरी अविचल भक्ति हो । आपके भक्तों से मेरा सौहार्द-मैत्री का सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियों के प्रति अहैतुक दया का भाव बना रहे। जब कालयवन मुचुकुन्द की दृष्टि
१. श्रीमद्भागवत १०।३४।१५-१७ २. तत्रैव १०१३४।१६ ३. तत्रैव १०।३७।११-२४ ४. तत्रैव १०॥४०।१-३० ५. तत्रैव १०१४०।१ ६. तत्रैव १०॥४८१८-२७ ७. तत्रैव १०॥४८१२७ ८. तत्रैव १०१४११४५-५१ ९. तत्र व १०।४११५१
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