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भूमिका
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् । पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ॥
कालव्यालमुखग्रासनिर्णाशकारक, तापत्रयविनाशक, अज्ञानध्वान्तविध्वंसकोटिसूर्यसमप्रभा विभूषित, सकलकल्मषकलुषविध्वंसक, सर्वसिद्धान्तनिष्पन्न, संसारभयनाशन, भक्त्योघवर्धक, मुक्तिदायक, कृष्णप्राप्तिकर, कृष्णसंतोषहेतुक, पावनानां पावनः, श्रेयसां श्रेयः, भगवद्विभूति, भगवत्स्वरूप आदि विशेषणों से विभूषित श्रीमदभागवत महापुराण वैयासिकी प्रतिभा का चूडान्त निदर्शन है । सृष्ट्यारंभ में इस अज्ञानापास्तक ज्ञानप्रदीप का दान भगवान् नारायण ने किंकर्तव्यविमूह ब्रह्मा को दिया। ब्रह्मा ने नारद को, नारद ने व्यास को, व्यास ने शुकदेव को और शुकदेव ने परीक्षित को इस ज्ञानदीप का दान दिया। यह अजस्रा एवं अविच्छेद्या प्रस्रविणी संपूर्ण वसुन्धरा को आप्यायित करती हुई अन्त में "तत्शुद्धं परमं विशोकममलं सत्यं परं धीमहि" में परम विश्रान्ति को प्राप्त हो जाती है।
भागवतपद संज्ञा और विशेषण दोनों अर्थो में प्रयुक्त हुआ है । आत्मलाभार्थ भगवत्प्रोक्त जो उपाय है उन उपायों को भागवत धर्म कहा गया है। (११..२.३४.६.१६ ४०,४३) भक्त के लिए भी अनेक बार इस शब्द का प्रयोग हुआ है (११.२.४५,७.१०.४३, १.१८ १६) । भगवताप्रोक्तम् (२.९.४३) भगवत्प्रोक्तम (२.८ २८) भगवनोदितम् (२.७.५१) मयाप्रोक्तम् (३.४.१३) प्रोक्तं किलैतद् भगवत्तमेन (३.८.७) साक्षात्भगवतोक्तेन आदि भागवतीय वचनों के अनुसार "भगवान् का वचन" भागवत पदार्थ है । "तेनप्रोक्तम्" (पाणिनि सूत्र ४.३.१०१) इस सूत्र से भगवत् शब्द से प्रवचन अर्थ में अप् प्रत्यय हुआ है। भगवत् शब्द समस्त अवतारों (५.१८.२) समस्तदेवों (५.१९.१५) समस्त आचार्यों (९.१.१३) ऋषियों, सगुण-निर्गण ब्रह्म (१.२.११,१ ५.३७) आदि के अर्थ में विनियुक्त हुआ है। भग शब्द से वतुप् करने पर भगवत् बना है । भग षड्पदार्थ युक्त है --
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीर्यते ।।
अर्थात् समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य को भग कहते हैं, जो भगयुक्त है वह भगवान् है और भगवान् द्वारा कथित प्रवचन भागवत
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