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भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण
अजातपक्षा इव मातरं खगाः स्तन्यं यथा वत्सतराः क्षुधार्ताः । प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥'
भक्ति के सारे तत्त्व, अलौकिक कविकर्म एवं काव्य के गुण समवेत रूप में इस एक ही श्लोक में समाहित हो गये हैं । भक्तराज वृत्रासुर की सम्पूर्ण समर्पण की भावना अत्यन्त उदात्त है ।
पर स्तुतियों का
भक्तों की सामाजिक स्थिति के आधार पर स्तुतियों का दो प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है
(क) सर्वस्वत्यागी भक्तों द्वारा गायी गईं स्तुतियां
७. भक्तों की सामाजिक स्थिति के आधार वर्गीकरण
श्रीमद्भागवत परमहंसों की संहिता है । बहुत से ऐसे भक्त हैं जो संसार के सारे बंधनों से ऊपर उठ चुके हैं, केवल भक्ति लोकमंगल एवं संसार में फंसे जीवों के उद्धार के लिए भगवान् के गुणों को गा-गाकर सर्वत्र प्रेम की धारा प्रवाहित करते चलते हैं। ऐसे गुणी - गुणज्ञ भक्तों द्वारा कृत स्तुतियां भी श्रीमद्भागवत में समाहित हैं । ऐसे भक्तों को न तो कोई कामना होती है न कोई इच्छा - केवल भगवान् के चरणों में ही निवास करते हैं । शरीर - सम्बन्ध की दृष्टि से इनका कोई नहीं होता है अन्यथा ये संपूर्ण धरती को ही अपना परिवार मानते हैं। शुकदेव, व्यास, मार्कण्डेय और नारद इसी कोटी के भक्त हैं । सर्वस्वत्यागी भक्तराज शुकदेव श्रीमद्भागवत में तीन बार - स्तुति करते हैं । प्रथम बार द्वितीय स्कन्ध के चतुर्थ अध्याय में भगवत्स्तुति, षष्ठ स्कन्ध के उन्निसवें अध्याय में लक्ष्मीनारायण की तथा वहीं पर भगवान् विष्णु की स्तुति करते हैं । जब राजा परीक्षित ने प्रभु के गुणों का वर्णन करने के लिए प्रार्थना की-तब श्रील शुकदेव गोस्वामी परात्पर ब्रह्म की इस प्रकार गुणात्मक स्तुति करने लगे
नमः परस्मै पुरुषाय भूयसे सदुभवस्थाननिरोधलीलया । गृहीतशक्तित्रितयाय देहिनामन्तर्भवायानुपलक्ष्यवत्मने ॥
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ब्रह्मर्षि नारद छ: बार स्तुति करते हैं । एक बार नर-नारायण की (५।१९), दो बार संकर्षण की (५।२५), (६।१६ ) एवं तीन बार भगवान् श्रीकृष्ण, (१०।३७,६९,७० ) की स्तुति करते हैं । ब्रह्मर्षि नारद तुम्बुरुगंधर्व के साथ ब्रह्माजी की सभा में भगवान् संकर्षण के अद्भुत गुणों का गायन
१. श्रीमद्भागवत ६।११।२६
२. तत्रैव २|४|१२
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