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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
इस कलिकाल में नारायण-कवच अद्भुत शक्ति से पूर्ण, संकट से उबारने वाला एवं विजय दिलाने वाला है। नामरूपात्मक स्तोत्र का एक श्लोक, जिसमें हरि से रक्षा की कामना की गई है--
ॐ हरिविदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताघ्रिपद्मः पतगेन्द्र पृष्ठे । दरारिचर्मासिगदेषु चाप पाशान् दधानोऽष्टगुणोऽष्टबाहुः ॥
पुंसवनव्रत के अवसर पर व्रतानुष्ठानक: स्त्रियां अपने पति के उत्थान के लिए विष्ण की एवं संतान की इच्छा से अदिति भगवान् कश्यप की उपासना करती हैं । विद्याधरगण अपने उत्थान, सांसारिक मानमर्यादा की कामना से प्रभु विष्णु की आराधना करते हैं । सुन्दर पत्नि के लिए कर्दम, (३.२१) प्रजा के विकास के लिए दक्ष प्रजापति (६.४) भगवान् विष्णु की स्तुति करते हैं। ५. भावना के आधार पर स्तुतियों का वर्गीकरण
विभिन्न भावनाओं से प्रेरित होकर भागवतीय भक्त प्रभु की स्तुति करते हैं। कोई सख्य भाव से, कोई दास्य भाव से तो कोई वात्सल्य भाव से, कोई तत्त्वज्ञान की भावना से प्रभु की नुति करता है तो कोई केवल पादपंकज की सेवा की इच्छा से (दास्य भाव) अपने प्रियतम की ईडा करता
(क) ज्ञानी भक्तों को स्तुतियां
श्रीमद्भागवत में कुछ ऐसी स्तुतियां भी है जो तत्त्व वर्णन की भावना से की गई है । नारद, शुकदेव, ब्यास, मार्कण्डेय आदि ऋषियों द्वारा कृत स्तुतियां इस श्रेणी के अन्तर्गत आती हैं। (ख) पादपंकजेच्छुक भक्तों की स्तुतियां या दास्य भाव से युक्त स्तुतियां
__ श्रीमद्भागवत में बहुत अधिक ऐसी स्तुतियां है जिसमें केवल दास्य भाव की प्रधानता है । भक्त सम्पूर्ण वैभव विलास को त्यागकर अपने प्रियतम भगवान के चरण-रज में ही निवास करना चाहता है। एकाग्र मन से सब कुछ समर्पित कर, सारे इन्द्रियों को प्रभु में स्थित कर, केवल उनके दासों का दास होना चाहता है । भक्तराज वृत्रासुर की प्रयाणिक वेला में की गई स्तुति का एक श्लोक द्रष्टव्य है
अहं हरेः तव पादैकमूलदासानुदासो भवितास्मि भूयः ।
मनः स्मरेतासुपतेः गुणांस्ते गृणीत वाक् कर्म करोतु कायः॥ १. श्रीमद्भागवत ६.८.१२ २. तत्रैव ६.११.२४
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