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श्रीमद्भागवत की स्तुयियों का समीक्षात्मक अध्ययन राजा गण अपना दूत भेजकर प्रभु के चरणों में कारागार से मुक्ति के लिए याचना करते हैं । हे प्रभो ! जैसे सिंह भेड़ों को पकड़ लेते हैं, उसी प्रकार दुष्ट जरासंध ने हम लोगों को पकड़ रखा है । हे नाथ ! आपने उसे १७ बार पराजित किया लेकिन लीला विस्तार के लिए १८वीं बार खुद पराजित हो गये । इसलिए हे भक्तवत्सल उसके गर्व ने अत्यन्त प्रचण्ड रूप धारण कर लिया है। हे अजित ! वह यह जानकर हम लोगों को और सताता है कि हम लोग आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं । अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए।
मातृगर्भरूप कारागार में फंसा जीव वर्तमान में प्राप्त तथा भविष्य में प्राप्तव्य सांसारिक दुर्दशा का अनुमान कर घबरा जाता है। वह उस परमात्मन् के चरण-शरण होता है जिसने उसे ऐसा कष्ट दिया है-विण्मुत्र कुप में डाला है । कष्ट से घबराकर वह जीव सर्वतोभावेन प्रभु के चरणों में अपने-आप को समर्पित कर देता है। २. क्रोध शान्ति के लिए
भगवान् अथवा किसी नप विशेष के क्रोध शमन के लिए भी कतिपय स्तुतियां विभिन्न भक्तों द्वारा अपने उपास्य के प्रति समर्पित की गई हैं। जगज्जेता हिरण्यकशिपु के बध के बाद नरसिंह भगवान् की क्रोधाग्नि इतनी भड़क उठी थी मानो वे त्रैलोक्य को भी जला डालेंगे। देव-गण स्तुति करते रह गये तथापि प्रभु शान्त नहीं हुए । तब देव लोग प्रभु के अनन्य भक्त बालक प्रह्लाद को नरसिंह की उपासना में भेज देते हैं। प्रह्लाद की स्तुति से प्रभु गद्गद् हो गये । कौरवों की उदण्डता से कुपित संकर्षण जब हस्तिनापुर को हल से कर्षण कर गंगा की ओर ले जाने लगे तो डरकर कौरवों ने उनकी प्रसन्नता के लिए स्तुति की।
राजा पृथ की प्रसन्नता के लिए पृथिवी, शिव की कोप-शान्ति के लिए देवगण और दक्ष प्रजापति, सुदर्शन चक्र की शान्ति के लिए अम्बरीष स्तुति करते हैं । भक्तरक्षण में नियुक्त सुदर्शन चक्र ऋषि दुर्वासा के मस्तक भंजन के लिए उनकी ओर उन्मुख होता है । डर के मारे दुर्वासा त्रैलोक्य में भागते चले लेकिन उनका कोई रक्षक नहीं मिला । अन्त में अम्बरीष के शरणप्रपन्न होते हैं । भक्त प्रवर अम्बरीष सुदर्शन शान्ति के लिए इस प्रकार स्तुति करते हैं१. श्रीमद्भागवत १०.७०.३० २. तत्रैव ३.३१.१२ ३. तत्रैव ७४९।८-५० ४. तत्र व १०६६८१४८
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