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________________ ५० सम्बोधि उपशान्तो भवेत् कोधः, मानं माया प्रलोभनम् । समीचीना व्यवस्था स्यात्, स्वातंत्र्यं स्यादबाधितम् ॥६४॥ ६४. जब क्रोध, मान, माया और लोभ उपशान्त होते हैं तब व्यवस्था अच्छी होती है और सबकी स्वतन्त्रता अबाधित रहती है। उत्तेजितो भवेद् क्रोधः, मानं माया प्रलोभनम् । व्यवस्थाप्यसमीचीना, पारतंत्र्यं प्रवर्धते ॥६॥ ६५. जब क्रोध, मान, माया और लोभ उत्तेजित होते हैं तब व्यवस्था अच्छी नहीं रहती और परतन्त्रता बढ़ती है। कुछ स्थितियां व्यवस्थाजन्य होती हैं और कुछ कर्मजन्य होती हैं। इनका विवेक होना आवश्यक है। आज का व्यक्ति व्यवस्थाजन्य परिस्थितियों को कर्मजन्य मानकर उलझ जाता है, हताश होकर पुरुषार्थ से मुंह मोड़ लेता है । ऐसी स्थिति में वह अपने लिए नई समस्याएं पैदा कर लेता है। कुछ सुख-दुःख कर्मजन्य होते हैं और कुछ व्यवस्थाजन्य । इनको एक-दूसरे पर आरोपित नहीं करना चाहिए। जब सामाजिक व्यवस्था अच्छी नहीं होती तब प्रत्येक व्यक्ति दुःख पाता है और जब वह सुधर जाती है तब सब सुख पाते हैं। यह व्यवस्थापादित सुखदुःख की बात है। इसी प्रकार जब व्यक्ति-व्यक्ति का आत्म-विकास प्रगति पर होता है, क्रोध आदि दुर्गुणों का ह्रास होता है तब वे अच्छे समाज की रचना कर सकते हैं। दुर्गुणों के नाश की बात कर्मजन्य है। जब आन्तरिक दोष कम होते हैं तब सामाजिक व्यवस्था अच्छी होती है और जब वे प्रबल होते हैं तब सामाजिक व्यवस्था बुरी हो जाती है। यह स्पष्ट विवेक होना चाहिए कि क्रोध, मान, राग, द्वेष आदि कर्मजन्य दोष हैं। किन्तु उनकी अभिव्यक्ति स्थिति-सापेक्ष होती है, बाह्य परिस्थिति के आधार पर होती है। यदि अनुकूल स्थिति नहीं मिलती तो वे कर्मजन्य दोष व्यक्त नहीं होते, अव्यक्त रहकर ही टूट जाते हैं। ____ अतः हम सब कुछ कर्मजन्य न मानकर व्यवस्थाजन्य दोषों का परिहार करने के लिए उचित पुरुषार्थ करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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