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४८ : सम्बोधि
अहमिन्द्र-यह जैन परिभाषिक शब्द है। इसका शब्दार्थ है—मैं इन्द्र है। इसका तात्पर्य है—ऐसी व्यवस्था जहां सब समान हों, कोई छोटा-बड़ा न हो। सब अपने आपको एक-दूसरे के समान समझते हों।
जैन सिद्धान्त में सबसे ऊंचे देवलोक का नाम है—'सर्वार्थसिद्ध'। वहां के सभी देव 'अहमिन्द्र' होते हैं । उनमें स्वामी-सेवक की व्यवस्था नहीं होती।
भगवान् प्राह
स्वामिसेवकसंबंधः, व्यवस्थापादितो ध्रुवम् । सामुदायिकसंबंधाः, सर्वे नो कर्मभिः कृताः ॥५५॥
५५. भगवान् ने कहा-मेघ ! स्वामि-सेवक का सिद्धान्त व्यवस्था पर आधारित है । सभी सामुदायिक सम्बन्ध कर्मकृत नहीं होते।
राजतंत्रे भवेद् राजा, गणतंत्रे गणाधिपः । व्यवस्थामनुवर्तेत, विधिरेष न कर्मणः ॥५६॥
५६. राजतन्त्र में राजा होता है और गणतन्त्र में गणनायक । यह विधि कर्म के अनुसार नहीं चलती किन्तु व्यवस्था के अनुसार चलती है।
दासप्रथा प्रवृत्तासौ, यदि कर्मकृता भवेत् । तदा तस्या विरोधोऽपि, कथं कार्यो मया भवेत् ॥५७॥
५७. यदि वर्तमान में प्रचलित दासप्रथा कर्मकृत है तो मैं उसका विरोध कैसे कर सकता हूं?
नासौ कर्मकृता वत्स !, व्यवस्थापादिता ध्रुवम् । सामाजिक्या व्यवस्थायाः, परिवर्तोऽपि मे मतः ॥५८॥
५८. वत्स ! यह कर्मकृत नहीं किन्तु व्यवस्था से उत्पन्न है। सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होता है, ऐसा मेरा मत है।
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