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________________ 10 : सम्बधि (१) ज्ञानावरण (२) दर्शनावरण (३) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयुष्य (६) नाम (७) गोत्र (८) अन्तराय इन कर्मों का सम्पूर्ण विलय होने पर आत्मा के मूल गुण प्रकट होते हैं । जब तक ये कर्म रहते हैं, आत्मा जन्म-मरण के आवर्त में घूमता रहता है। इनका सर्वथा नाश होने पर आत्मा मुक्त हो जाता है । मुक्ति अर्थात् स्वतन्त्रता। पूर्ण स्वतन्त्र अवस्था की अनुभूति विभाव में नहीं होती, वह स्वभाव में होती है। आत्मा स्वभाव से कभी नहीं छूटता किन्तु साधना के द्वारा उसके विभाव को नष्ट किया जा सकता है। ऐसे तो आत्मा के मूल गुण चार हैं : (१) अनन्त ज्ञान (२) अनन्त दर्शन (३) अनन्त चरित्र (४) अनन्त बल इस अनन्त चतुष्टयी को आवृत करने वाले कर्मों को घातिकर्म कहा जाता है। वे भी चार हैं : १. ज्ञानावरवण २. दर्शनावरण 3. मोहनीय ४. अन्तराय इनके संपूर्ण विलय से व्यक्ति वीतराग हो जाता है। उसमें राग-द्वेष आदि दोष नहीं होते। उसका ज्ञान और दर्शन निरावृत हो जाता है। वह तब शुक्ल ध्यान का अधिकारी होता है और अपने आयुष्य कर्म का क्षय होने पर वह पांचों भौतिक शरीरों से मुक्त होकर सिद्ध और परिनिर्वृत हो जाता है। यही परमात्मदशा है। यही मोक्ष है। मेघः प्राह धार्मिको धर्ममाचिन्वन्, सुखमाप्नोति सर्वदा । दुष्कृती दुष्कृतं कुर्वन्, दुःखमाप्नोति सर्वदा ॥३८॥ न चैष कर्मसिद्धान्तः, लोके संगच्छते क्वचित् । धार्मिका दुःखमापन्नाः, सुखिनो दुष्कृते रताः ॥३६॥ ३८-३६. मेघ बोला- 'भगवन् ! धार्मिक धर्म करता हुआ सदा सुख पाता है और अधार्मिक अधर्म करता हुआ सदा दुःख पाता है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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