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________________ अध्याय २ : २३ लगता है और दुःख अप्रिय । तब सुख को ठुकराकर दुःख क्यों सहा जाए ? भगवान् प्राह यत् सौख्यं पुद्गलैः सृष्टं, दुःखं तद् वस्तुतो भवेत् । मोहाविष्टो मनुष्यो हि, सत्तत्त्वं न हि विन्दति ॥५॥ ५. भगवान ने कहा---जो सुख पुद्गल-जनित है वह वस्तुतः दुःख है, किन्तु मोह से घिरा हुआ व्यक्ति इस सही तत्त्व तक पहुच नहीं पाता। __ वस्तु-जन्य सुख वास्तव में सुख नहीं, सुखाभास है। ज्यों-ज्यों उसका उपभोग किया जाता है, त्यों-त्यों उसके प्रति अनुराग बढ़ता है और उससे कभी कामनाएं तृप्त नहीं होती। इसलिए यह आपातभद्र है, परिणामभद्र नहीं। खुजली के रोगी को खुजलाने में सुख की अनुभूति होती है, किन्तु वह परिणाम में सुखावह नहीं होती। वस्तुतः वह दुखों को जन्म देती है। साधक में पौद्गलिक सुख और आत्मिक सुख के पार्थक्य का स्पष्ट विवेक होना चाहिए । वह न इनकी आकांक्षा करे और न इनमें फंसे । ये दुर्गति के चक्रव्यूह की रचना करते हैं। जिस व्यक्ति में मोह प्रबल होता है, उसी में पौद्गलिक सुखों के प्रति आसक्ति रहती है। ज्यों-ज्यों मोह का विलय होता है, त्यों-त्यों आसक्ति भी विलीन होती जाती है। पदार्थों के प्रति आसक्ति से मोह बढ़ता है और मोह से पदार्थों के प्रति आसक्ति बढ़ती है, इस चक्रव्यूह को वही तोड़ सकता है, जो कामनाओं से विरत है। दृष्टिमोहेन मूढोऽयं, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यते। मिथ्यात्वी घोरकर्माणि, सृजन् भ्राम्यति संसृतौ ॥६॥ ६. दर्शन-मोह (दृष्टि को मूढ़ बनानेवाले मोह-कर्म) से मुग्ध मनुष्य मिथ्यात्व की ओर झुकता है और मिथ्यात्वी घोर कर्म का उपार्जन करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है। मूढश्चारित्रमोहेन, रज्यति द्वेष्टि च क्वचित् । रागद्वेषौ च कर्माणि, स्रवतस्तेन संसृतिः॥७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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