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________________ २२ : सम्बोधि जो प्रत्यक्ष है वह सत्य है, जो परोक्ष है उसमें सत्य का आरोप मृगमरीचिका मात्र है। इसलिए प्रत्यक्ष सुखों को छोड़कर, परोक्ष सुखों की ओर दौड़ते जाना बुद्धिमत्ता नहीं है। उसका संशयग्रस्त मन भगवान के चरणों में खुलता है। उसने कहा—'भगवन् ! प्राप्त सुखों को छोड़कर अप्राप्त सुखों के लिए इतने कष्टों को सहन करने में कौन-कौन से साधक तत्त्व हैं ?' भगवान् प्राह सुखासक्तो मनुष्यो हि, कर्तव्याद्विमुखो भवेत् । धर्मे न रुचिमाधत्ते, विलासाबद्धमानसः ॥२॥ २. भगवान ने कहा-जो मनुष्य सुख में आसक्ति रखता है और विलास में रचा-पचा रहता है, वह कर्तव्य से पराङ मुख बनता है। उसकी धर्म में रुचि नहीं होती। भगवान् ने कहा—पौद्गलिक सुखों का उपभोग अतृप्ति को बढ़ाता है। अतृप्त मन कामनाओं के जाल बुनता है। कामनाएं मोह पैदा करती हैं । मूढ़ व्यक्ति में धर्म का निवास नहीं होता क्योंकि उसका मन कामनाओं से अपवित्र बन जाता है। अपवित्र व्यक्ति में धर्म नहीं ठहरता। 'धम्मो सुद्धस्स चिट्टइ'-धर्म पवित्र व्यक्ति में ही ठहरता है । जहां धर्म नहीं रहता, वहां मोह की प्रबलता होती है। मूढ़ व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जानता। इस अविवेक से वह एक के बाद दूसरी मूढ़ता करता जाता है और अन्त में विषादग्रस्त हो नष्ट हो जाता है। कर्तव्यञ्चाप्यकर्त्तव्यं, भोगासक्तो न शोचति । कार्याकार्यमजानानो, लोकश्चान्ते विषीदति ॥३॥ ३. भोग में आसक्त रहनेवाला व्यक्ति कर्तव्य और अकर्तव्य के बारे में सोच नहीं पाता । कर्तव्य और अकर्तव्य को नहीं जाननेवाला व्यक्ति अन्त में विषाद को प्राप्त होता है। मेघः प्राह सुखं स्वाभाविकं भाति, दुःखमप्रियमङ्गिनाम् । तत् किं दुःखं हि सोढव्यं, विहाय सुखमात्मनः ॥४॥ ४. मेघ बोला-प्राणियों को सुख स्वाभाविक लगता है, प्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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