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४१४ : सम्बोधि
यही है । किन्तु यहां तक पहुंचने के लिए मन को पहले धारणा - एकाग्रचिन्तन के ग्रारा तदनुरूप बनाना आवश्यक है । धारणा ध्यान की सहयोगिनी है । इसे सालम्बन या व्यावहारिक ध्यान कहा जा सकता है । निराललंबन ध्यान पारमार्थिक है । जिसमें ध्येय परमात्मा रहता है । आचार्य जिनभद्र के अनुसार स्थिर चेतना ध्यान और चल चेतना चित्त कहलाता है
'जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, जं चलं तयं चित्तं ।'
आचार्य रामसेन के विचार से एक आलम्बन पर अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध ध्यान है । उसी प्रकार चिन्तन रहित केवल स्व-संवेदन भी ध्यान है
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'अभावो वा निरोधः स्यात्, स च चित्तान्तरव्ययः । एक चिन्तात्मको यद् वा, स्वसंविच्चिन्ततोज्जिझता ॥'
युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने लिखा है – 'जैन आचार्य ध्यान को अभावात्मक नहीं मानते। इसके लिए किसी न किसी एक पर्याय का आलम्बन आवश्यक है । स्वसंवेदन ध्यान को निरालम्बन ध्यान कहा जाता है किंतु यह सापेक्ष शब्द है । इसमें किसी श्रुत के पर्याय का आलम्बन नहीं होता - इस दृष्टि से यह निरालम्बन है । निरालम्बन ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न नहीं होते । उसमें शुद्ध चेतना का ही उपयोग होता है । सालम्बन ध्यान में ध्येय और ध्याता का भेद होता है । जैन साधकों का यह अनुभव है कि प्रारम्भ में सालम्बन ध्यान करना चाहिए ।
सालम्बन और निरालम्बन ध्यान को समझने से पूर्व हमें यह जान लेना चाहिए कि ध्यान प्रशस्त भी होता है और अप्रशस्त भी, शुभ भी होता है और अशुभ भी । यह महावीर की अपनी विशिष्ट देन है । ध्यान प्राणीमात्र में होता है । मनुष्य उसकी अभिव्यक्ति का मुख्य केन्द्र है, जिसमें ध्यान की सर्वोच्च योग्यता है । परमात्मा का द्वार यदि किसी के लिए खुला है तो वह मात्र मानव के लिए है । ध्यान उसका अनन्यतम साधन है । मनुष्येतर प्राणियों में ध्यान की परमोच्चता संभव नहीं है और ध्यान का अप्रशस्तरूप भी इतना स्पष्ट अभिव्यक्त नहीं होता । यहां ध्यान से प्रशस्त शुभ ध्यान का अभिप्राय है । लेकिन अप्रशस्त-अशुभ भी ज्ञेय है । अप्रभस्त का त्याग प्रशस्त को स्वतः उजागर कर देता है ।
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अप्रशस्त - अशुभ ध्यान दो हैं - आर्त्त और रौद्र । आर्त का अर्थ है - दुःखित होना । चेतना की बहिर्गामी प्रवृत्ति दुःख उत्पन्न करती है । प्राणियों का बाहर से सम्बन्धित होना दुःख है । ये दोनों अज्ञान-ज -जनित हैं। अज्ञान के कारण ही प्राणी दूसरों को स्व मानते हैं । वियोग और संयोग से प्रसन्न तथा अप्रसन्न बनते हैं । जब जीवन पर निर्भर हो तब अशान्ति न हो यह कैसे शक्य हो सकता है ? आर्त ध्यान के कारणों से यह स्पष्ट हो जाता है
के वियोग से होने वाला मानसिक कष्ट ।
( १ ) प्रिय 'वस्तु (२) अप्रिय वस्तु के संयोग से उत्पन्न चित्त कदर्थन ।
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