SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यान और मुनि साधक इस संकल्प के साथ साधना पथ पर अग्रसर होता है 'अगं परियाणामि, मग्गं उवसंपज्जामि अन्नाणं परियाणामि, नाणं उपसंपज्जामि । अभं परियाणामि, बंभं उपसँपज्जामि । - मैं साधना के प्रतिकूल मार्ग को छोड़ता हूं और सम्यक् मार्ग की संपदा स्वीकार करता हूं। मैं अज्ञान से विरत होता हूं और सम्यक् ज्ञान की आराधना में प्रस्तुत होता हूं। मैं बहिर्भाव को त्यागता हूं और स्वभाव की साधना में प्रवृत्त होता हूं । इन संकल्पों की सतत स्मृति और तदनुरूप प्रवर्तन ही ध्यान की सिद्धि में उपादेय है । जब साधक स्वभाव से मुंहमोड़, पुनः परभाव की ओर उन्मुख हो जाता है, तब ध्यान का अंकुर मुरझा जाता है, सूख जाता है और जल जाता है । इसके साथ उसकी समस्त वृत्तियां लक्ष्य से विमुख हो जाती हैं । आचार्य शुभचन्द्र ने उन्हें आड़े हाथों लिया है । वे कहते हैं- "वह यति-मुनि कैसे ध्यान - सोपान पर आरूढ़ हो सकता है जिसके जो कर्म में है, वह वचन में नहीं है और जो वचन में है, वह मन में नहीं है । जिसकी कथनी करनी और चिन्तन में एकरूपता नहीं है ।' 'जो बाह्य परिग्रह को छोड़कर भी विविध परिग्रह में जुड़े रहते हैं, संयम में अधीर हैं। तथा कीर्ति, पूजा और अहंकार में आसक्त हैं, लोतरञ्जन में कुशल हैं, सद्ज्ञानचक्षु विलुप्त हो गया है वे कैसे ध्यान में योग्य हो सकते हैं।' इसके साथ-साथ जो यह कहते हैं कि यह दुषम- काल है। इस समय ध्यान की योग्यता कहां है ? वे ध्यान का अपकर्ष करते हैं । जो भोग से विरत, ज्ञानशून्य चित्तवाले, तथा करुणार्द्रहृदय नहीं हैं, वे ध्यान में सक्षम नहीं हो सकते । वे ही साधक अपने ध्यान की प्राप्ति में सफल होते हैं जो अपने लक्ष्य, निष्ठा और मुमुक्षावृत्ति से विमुख नहीं होते तथा उसे विस्मृत नहीं करते । पातञ्जल योगदर्शन में धारणा और समाधि को अलग स्थान दिया है । जैन परम्परा में वे दोनों ध्यान के अन्तर्गत हैं । धारणा ध्यान का प्राथमिक चरण है और समाधि अन्तिम । ध्यान मध्य में है । ध्यान का ही प्रकृष्ट रूप समाधि है । ध्यान को समझ लेने पर यह अविज्ञात नहीं रहेगा । चित्त को किसी एक स्थान पर केन्द्रित करना धारणा है । उसी में लंबे समय तक टिका रहना ध्यान है और समाधि है अपने स्वरूप के सिवाय किसी अन्य का अवभास नहीं होना । जैनाचार्यों ध्यान के सम्बन्ध में कहा है- 'एकाग्रचिन्तायोगनिरोधो वा ध्यानम्' – किसी एक ही विषय का चिन्तन, एक विषय पर स्थिरीकरण और योग ( काय, वाणी तथा मन के समस्त व्यापारों ) का निरोध ध्यान है । समग्र प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध ध्यान का उत्कृष्टतम रूप है। वहां शुद्ध चैतन्य -- अस्तित्व के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता । सीधा इसमें प्रवेश सर्वसाधारण के लिए असहज है | ध्येय Jain Education International परिशिष्ट - १ : ४१३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy