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________________ परिशिष्ट-१ : ४०७ 'मैं'– अहंकार साधना-मार्ग में महान् विघ्न है। महान् साधक स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा है, "अहंकार का त्याग हुए बिना ईश्वर की कृपा नहीं होती।" ईश्वर के घर के दरवाजे के रास्ते में अहंकार रूपी ठूठ पड़ा हुआ है। इसे पार किये बिना कमरे में प्रवेश नहीं किया जा सकता। अहंकार है इसलिए ईश्वर के दर्शन नहीं होते। कहीं अहंकार न हो जाए, इसलिए 'मैं' का प्रयोग करना भी एक बार किसी के देखा देखी रामकृष्ण ने बन्द कर दिया था। अहंकार बड़ा सूक्ष्म है। साधक अपनी प्रत्येक लघुतम शारीरिक और मानसिक प्रवृत्ति के प्रति अन्यतः जागरूक रहे तो उसे अनुभव हो सकता है कि कब कैसे अहंकार उठता है? अहंकार के विसर्जन के लिए उसके प्रति सचेष्ट होना पहला चरण है । 'मैं' (अहं) का विसर्जन विनय है। स्वयं को सब तरह से परमात्मा के अवतरण के लिए खाली कर लेना। अहं के शून्य होने से ही मानसिक, वाचिक और कायिक विनय प्रतिफलित हो सकता है। व्यक्ति का रूपान्तरण अन्यथा असंभव है। बाहर से व्यक्ति बड़ा विनम्र बनता है, झुकता है, किन्तु भीतर अहं 'मैं' अकड़ा रहता है, महावीर कहते हैं— "अहंकार को जीते बिना व्यक्ति मृदु--विनम्र नहीं बन सकता।" विनम्रता का अर्थ है - अहं—'मैं' का मिट जाना, शून्य हो जाना। युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ ने लिखा है-"विनय का वास्तविक अर्थ है-अपने आप को बिल्कुल खाली कर देना, अहं से मुक्त कर देना, केवल अपने स्वरूप की स्थिति में चले जाना, बाहर से जो कुछ भरा हुआ है, उससे मुक्त हो जाना। इतना रेचन करना पड़ता है कि मन खाली हो जाये। विनय की सारी प्रक्रिया रेचन की प्रक्रिया है। विनय में कषाय का विवेक होता है। विवेक का अर्थ है-पृथक् करना। पृथक् करने का अर्थ है-रेचन करना, निकालना। इसी का नाम है 'विनयनम्' । जब तक आदमी खाली नहीं होता तब तक विनय के द्वारा जो समाधि प्राप्त होनी है वह प्राप्त नहीं होती। विनय की चार अपेक्षाएं हैं (१) गुरु के अनुशासन को सुनना। (२) गुरु जो कहता है उसे स्वीकार करना । (३) गुरु के वचन की आराधना करना। (४) अपने मन को आग्रह से मुक्त करना। (३) वैयावृत्य वैयावृत्य का अर्थ है--सेवा, शुश्रूषा । गौतम ने महावीर से पूछा-'भन्ते ! सेवा करने से क्या होता है ? महावीर ने कहा-'गौतम ! सेवा करने वाला साधक तीर्थकर गोत्र नाम का उपार्जन कर लेता है।' अस्तित्व --बुद्धत्व की अवस्था को उपलब्ध होकर लोक-कल्याण का पथ प्रशस्त करता है। तपः साधना विजातीय तत्त्व से मुक्त करने की साधना है। महावीर ने कहा है-ऐहिक फल प्राप्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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