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________________ ४०६ : सम्बोधि लेता है। प्रायश्चित्त है अन्तर्-शोधन । प्रायश्चित्त व्यक्ति को बदलता है, पश्चात्ताप नहीं। महावीर आन्तरिक तप की बात कर रहे हैं। इसमें पश्चात्ताप से काम नहीं चलता। स्वयं को देखना और रूपान्तरित करना है। 'पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं' पुरुष ! तू ही अपना मित्र है। "स्वयं को बदल लेने पर पुरुष अपना मित्र हो जाता है और स्वयं को न बदलने पर शत्रु । भीतर में प्रयाण करने के लिए प्रायश्चित्त का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। (२) विनय : __ 'माणो विणयनासणो,' माणं मद्दवया जिणे' अहंकार विनय का नाशक है। अहंकार को मदु बनकर जीतो। इससे स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है कि विनय और अहंकार में कहीं तालमेल नहीं है । दोनों की दो दिशाएं हैं। विनय, अहंकार-शून्यता है। अहंकार की उपस्थिति में विनय सिर्फ औपचारिक होता है। वायजीद नामक सूफी सत के पास एक व्यक्ति आया, झुका और बोला-कुछ प्रश्न है। बायजीद ने कहा---'पहले तुम झुको तो सही' वह बोला आप क्या कहते हैं ? क्या आपने नहीं देखा, मैंने आते ही सबसे पहले झुककर आपको नमस्कार किया था? बायजीद हंसा और बोला-'मैं शरीर को झुकाने की बात नहीं कहता। मैं पूछता हूं, तुम्हारा अहंकार झुका या नहीं ? उसे झुकाओ। ऐसा ही प्रसंग बुद्ध के जीवन का है । एक धनी आदमी बहुमूल्य उपहार लेकर आ रहा था। सोचा बुद्ध स्वीकार करें या नहीं, इसलिए एक सुन्दर खिला हुआ पुष्प भी साथ ले लिया। वह उसे बुद्ध के चरणों में चढ़ाने लगा तो बुद्ध ने कहागिरादो इसे। उसने वह कीमती उपहार नीचे गिरा दिया। अब फूल समर्पित करने लगा, तब भी बुद्ध बोले-गिरा दो इसे। उसे भी गिरा दिया। वह अवाक् देखता रह गया। बुद्ध फिर उसी क्षण बोले। इसे भी गिरा दो। वह बोला भगवन् ! अब कुछ नहीं है मेरे हाथ में । बुद्ध ने मन्द मुस्कान के साथ कहा--- भले आदमी ! मैंने कब इन्हें गिराने के लिए कहा ? मेरा संकेत था, अहंकार की ओर । तू धनी है। धन का अहं जो बोल रहा था, उसे गिराने की बात है। बाहुबलि का इतिहास स्पष्ट है। सब कुछ त्यागकर भी उन्होंने अहं को बचा लिया था। एक वर्ष तक वे प्रतिमा की तरह निश्वेष्ट शान्त खड़े रहे। बड़ा दुर्धर्ष तप था। किन्तु अहंकार के कारण वे स्वयं से दूर थे। अहंकार का उपनयन नहीं किया। जैसे ही 'अहं' के बोध का भान हुआ और अपने भीतर के इस महान् अविजित शत्रु को देखा तो बाहुबलि को स्वयं पर तरस आया । हा ! कैसा विचित्र व्यक्ति हूं मैं ! जिसे सबसे पहले छोड़ने का था, मैं पत्थर की तरह उसका भार अब भी ढोये जा रहा हूं। एक क्षण में सर्प जैसे कंचुकी को छोड़ता है, बाहुबलि उससे मुक्त हो गये । अन्धकार आलोक में परिवर्तित हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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