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________________ ४०० : सम्बोधि मात्रा का जानकार हो। ऊनोदरी के लिए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-'ऊनोदरी ए तप, करवों दोहिलो वैराग्य बिना होवे नहीं'-ऊनोदरी तप करना कठिन है, उसके लिए वैराग्यविरक्ति चाहिए। भोजन करने के लिए बैठकर अपने पेट को थोड़ा सा खाली रखना, पूर्ण से पहले ही अपने को संकुचित कर लेना, सरल नहीं है। अधिक खाने की बात प्रायः सुनी जाती है, किन्तु आज भूख से कुछ कम खाया है-ऐसा शायद ही कभी सुनने को मिलता हो । उपवास सरल हो जाता है, किन्तु ऊनोदरी कठीन । सम्राट प्रसेनजित् का प्रसंग है भगवान् बुद्ध राजगृही में आये। नगरवासी दर्शन और श्रवण के लिए बुद्ध के चरणों में पहुंचे। सम्राट प्रसेनजित् भी आया। आगे की पंक्ति में बैठा । सम्राट अतिभोजी था। थोड़ी देर में जंभाइयां लेने लगा, ऊंघने लगा। लोगों को भी बुरा लगा। बुद्ध ने कहा---'राजन् ! क्यों जीवन व्यथं गंवा रहे हो ? क्या जीवन खाने के लिए ही है ?' सम्राट ने सकुचाते हुए कहा---'भन्ते ! आप ठीक कहते हैं ! यह भोजन का ही परिणाम है। बड़ी बुरी आदत है। बुद्ध ने सुदर्शन नामक प्रिय अनुचर से कहा---'सम्राट जब भोजन करे तब यह गाथा सुनाया करो। यदि राजा मना भी करे तो मानना मत । सुदर्शन ने कहा-अच्छा । ___'मनुजस्स सदा सतीमतो, मत्तं जानतो लद्ध भोजने । तनु तस्स भवन्ति वेदना, सणिक जीरति आयुपालयं ।' '-स्मृतिमान् व्यक्ति को प्राप्त भोजन में मात्रज्ञ होना चाहिए । जो मात्रज्ञ होता है उसकी वेदना नष्ट हो जाती है और वह पुष्ट शरीर वाला होता है। इसके विपरीत जो अतिभोजी होता है, वह अल्पायु, शीघ्र बूढ़ा और रोगी होता है।' सम्राट जब भी भोजन करता, सुदर्शन इस गाथा को प्रतिदिन सुनाता। सम्राट की आदत बदल गयी, वह परिमित भोजी हो गया। आचार्य ने उन व्यक्तियों के लिए आवमौदर्य तप का निर्देश किया है जो पित्त के प्रकोप वश उपवास करने में असमर्थ हैं, जो उपवास से अधिक थकान महसूस करते हैं, जो अपने तप के माहात्म्य से भव्य जीवों को उपशान्त करने में लगे हैं, जो अपने उदर में कृमि की उत्पत्ति का निरोध करना चाहते हैं और जो व्याधिजन्य वेदना के कारण अतिमात्रा में भोजन कर लेने से स्वाध्याय के भंग होने का भयः करते हैं। ऊनोदरी के फल ये हैं१. इन्द्रियों की स्वेच्छाचारिता मिट जाती है। २. सयम का जागरण होता है। ३. दोषों का प्रशमन होता है। ४. संतोष की वृद्धि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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