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३०६ : सम्बोधि
तीर्थनाथ ! त्वया तीर्थ मिदमस्ति प्रवर्तितम् । स्वयंसम्बुद्ध ! सम्बुद्धया, बोधितं सकलं जगत् ॥४२॥
४२. हे तीर्थनाथ! आपने इस चतुर्विध संघ का प्रवर्तन किया। हे स्वयंसंबुद्ध! आपने अपने ज्ञान से समस्त संसार को जागृत किया है।
अहिंसाराधनां कृत्वा, जातोऽसि, पुरुषोतमः। जातः पुरुषसिंहोंऽसि, भयमुत्सार्य सर्वथा ॥४३॥
४३. भगवन्! आप अहिंसा की आराधना कर पुरुषोत्तम बने हैं, भय को सर्वथा छोड़ पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी बने हैं ।
पुरुषेषु पुण्डरीकः, निर्लेपी जातवानसि ।
पुरुषेषु गन्धहस्ती, जातोऽसि गुणसम्पदा ॥४४॥ ४४. निर्लेप होने के कारण आप पुरुषों में पुण्डरीक-कमल के समान हैं । गुण-सम्पदा से समृद्ध होने के कारण आप पुरुषो में गन्धहस्ती के समान हैं।
लोकोत्तमो लोकनाथों, लोकद्वीपोऽअयप्रदः । दृष्टिदो मार्गदः पुंसां, प्राणदो बोधिदो महान् ॥४५॥
४५. भगवन्! आप संसार में उत्तम हैं, संसार के एकमात्र नेता हैं, संसार के द्वीप हैं, अभयदाता हैं, महान् हैं तथा मनुष्यों को दृष्टि द्वीप देने काले हैं, मार्ग देने वाले हैं, प्राण और बोधि देने वाले हैं ।
धर्मवरचातुरन्त-चक्रवर्ती महाप्रभः। शिवोऽचलोऽक्षयोऽनन्तो, धर्मदो धर्मसारथिः॥४६॥
४६. प्रभो! आप धर्म-चक्रवर्ती हैं। महान् प्रभाकर हैं, शिव
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