SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय १६ : ३८५ मेघ की जागृत आत्मा आराध्य के प्रति कृतज्ञ हो गई । मन का मैल धुल गया, वाणी विशुद्ध हो गई और शरीर शान्त हो गया। मन अनन्त श्रद्धा से भगवान् की आत्मा में विलीन हो गया। वाणी में अनन्त श्रद्धा है और शरीर श्रद्धा से नत है। आत्मा की श्रद्धा शब्दों का चोला नहीं पहन सकती और पहनाया भी नहीं जा सकता। किन्तु श्रद्धालु के पास उसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है। वह नहीं चाहता कि अनन्य श्रद्धा शब्दों के माध्यम से बाहर आए, लेकिन वाणी मुखरित हो जाती है। श्रद्धा के वे अल्प शब्द अनन्त श्रद्धालुओं के लिए प्राण, जीवन और संजीवनी बन जाते हैं। मेघ की आलोकित आत्मा अन्त में कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है, जिसका एक-एक शब्द श्रद्धा से स्पन्दित है और भावों की विशुद्धि लिए हुए है। कृतज्ञता के स्वर सर्वज्ञोऽसि सर्वदर्शी, स्थितात्मा धृतिमानसि । अनायुरभयो ग्रन्थादतीतोऽसि भवान्तकृत् ॥३६॥ ३६. मेघ ने कहा-आर्य ! आप सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, स्थितात्मा हैं, धैर्यवान हैं, अमर हैं, अभय हैं, राग-द्वेष की ग्रंथियों से रहित हैं और संसार का अन्त करने वाले हैं। पश्यतामुत्तमं चक्षुर्ज्ञानिनां ज्ञानमुत्तमम्।। तिष्ठतां स्थिरभावोऽसि, गच्छतां गतिरुत्तमा ॥४०॥ ४०. आप देखने वालों के लिए उत्तम चक्षु हैं । ज्ञानियों के लिए उत्तम ज्ञान हैं। ठहरने वालों के लिए स्थान हैं और चलने वालों के लिए उत्तम गति हैं। शरणं चास्यबन्धनां, प्रतिष्ठा चलचेतसाम । पोतश्चासि तितीर्ष णां, श्वासःप्राणभृतां महान् ॥४१॥ ४१. आप अशरणों के शरण हैं। अस्थिर चित्त वाले मनुष्यों के लिए प्रतिष्ठान हैं। संसार से पार होने वालों के लिए नौका हैं और प्राणधारियों के लिए आप श्वास हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy