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________________ ३७२ : सम्बोधि वीतरागो भवेल्लोको, वीतरागमनुस्मरन् । उपासकदशां हित्वा, त्वमुपास्यो भविष्यसि ॥१७॥ १७. जो पुरुष वीतराग का स्मरण करता है वह स्वयं वीतराग बन जाता है। वीतराग का स्मरण करने से तु उपासक दशा को छोड़कर स्वयं उपास्य (उपासना करने योग्य) बन जाएगा। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा बन जाता है। भीतर यदि जागरण न हो तो वह सोचना सम्मोहन पैदा कर देता है। आचार्य नागार्जुन के पास एक व्यक्ति मुक्ति के लिए आया । नागार्जुन ने कहा-'तीन दिन का उपवास करो, नींद मत लो। और सामने खड़ी भैंस को दिखलाकर कहा, बस यही स्मरण करो कि मैं भैस हो गया । वह एकान्त गुफा में चला गया। तीन दिन-रात यही कहता रहा । भरोसा हो गया कि मैं भैस हो गया। चौथे दिन सुबह नागार्जुन आए और कहा-बाहर जाओ। वह भैस की आवाज में चिल्लाया और कहा-कैसे आऊं बाहर ? नागार्जुन ने सिर पकड़कर हिलाया और कहा-कहां भैस हो तुम ? सम्मोहन टूट गया। वीतरागता साध्य है। वीतराग आदर्श है। साधक आदर्श को सतत सामने रखे । राग-द्वेष को जीतकर ही वीतराग बना जा सकता है। वह उसके प्रति सदा जागृत रहे। राग-द्वेष की मुक्ति ही उपासना की स्थिति को उपास्य में परिवर्तितः करती है। इन्द्रियाणि च संयम्य, कृत्वा चित्तस्य निग्रहम् । संस्पृशन्नात्मनात्मानं, परमात्मा भविष्यसि ॥१८॥ १८. इन्द्रियों का संयम कर ; चित्त का निग्रह कर; आत्मा से आत्मा का स्पर्श कर; इस प्रकार त परमात्मा बन जाएगा। परमात्मा होने का राज इस छोटी सी प्रक्रिया में निहित है। प्रत्याहार, प्रतिसंलीनता यह योग साधना का एक अंग है। इसमें यही सूचित किया है कि इन्द्रिय और मन को बाहर से समेट कर केन्द्र पर ले आओ, जहां से इन्हें शक्ति प्राप्त होती है और उसी के साथ योजित कर दो। धीरे-धीरे इस अभ्यास को बढ़ाते जाओ । एक दिन परमात्मा का स्वर प्रगट हो जाएगा और तुम्हारा स्वर शान्त हो जाएगा। जब तक तुम बोलते रहोगे, परमात्मा मौन रहेगा। उसे मुखरित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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