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१५. जो मनुष्य रौद्र होता है उसका मानसिक स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है। तू भोगों की रक्षा का प्रयत्न मत कर, इस प्रकार तुझे मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होगा ।
अध्याय १६ : ३७१
रागद्वेषौ लयं यातौ यावन्तौ यस्य देहिनः । सुखं मानसिकं तस्य तावदेव प्रजायते ॥ १६॥
१६. जिस मनुष्य के राग-द्वेष का जितनी मात्रा में विलय होता हैं उसे उतना ही मानसिक सुख प्राप्त होता है ।
'मेकेरियस' नामक साधक से किसी ने पूछा - कृपया बताएं कि मोक्ष का मार्ग क्या है ? सन्त ने कहा - 'यह सामने कब्रिस्तान है । प्रत्येक कब्र पर जाओ और सब को गाली देकर आओ।' उसने सोचा कहां आ गया ? इससे मोक्ष का संबंध है क्या ? खैर, वह गया और गाली देकर आ गया । सन्त ने कहा - 'एक बार फिर जाओ, और इस बार सबकी स्तुति करके आओ।' वह सब की स्तुति करके चला आया । सन्त ने पूछा— 'किसी ने कुछ उत्तर दिया ? कहा- नहीं।' बस यही साधना है । यही मोक्ष का मार्ग है। जीवन में राग-द्वेष, मान-अपमान आदि सभी स्थितियों में सम रहना, भीतर भी कोई उत्तर पैदा न होना, यही है मुक्ति का मार्ग । समाधिशतक में आचार्य पूज्यपाद ने लिखा है
अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः
नापमानादयस्तस्य न क्षेपो यस्य चेतसः ॥
जिसका मन शान्त नहीं है, विक्षिप्त है, अपमान आदि उसी को पीड़ित करते हैं । जिस का चित्त शान्त है, उसके लिए अपमान आदि कुछ नहीं हैं ।' जितनी मात्रा में राग-द्वेष की क्षीणता है उतनी ही मात्रा में मानसिक आनन्द भी परिपूर्ण रूप से अभ्युदित हो जाता है । साधक के चरण पूर्णता की ओर बढ़े ।
इन श्लोकों (४-१६) में मानसिक स्वास्थ्य के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है । वे संक्षेप में ये हैं : (१) मानसिक आवेगों का निराकरण (२) कायो- त्सर्ग का अभ्यास (३) विषयों की विस्मृति और विरक्ति (४) संयोग और वियोग में संतुलन (५) संकल्प - विकल्प से छुटकारा ( ६ ) अज्ञान का निराकरण ( ७ ) हिंसा आदि का त्याग (८) भोगों की रक्षा का त्याग ( 8 ) राग-द्वेष का विलय (१०) आत्मार्पणता ( ११ ) आत्मलीनता आदि ।
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