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________________ ३४० : सम्बोधि निखार में सतत जागरूक थे। इसलिए उन्होंने आत्म-विस्मृत होकर कष्ट सहने का समर्थन नहीं किया? और न हिंसापूर्ण वृत्तियों का। रत्नसार में आचार्य कहते हैं-क्रोध को दंडित नहीं कर शरीर को दंडित करना बुद्धिमानी नहीं है। उससे शुद्धि नहीं होती। सांप को न मार कर सर्प के बिल पर मार करने से सर्प नहीं मारा जाता।" केवल देह-दण्ड से नहीं, आंतरिक कषाय शत्रुओं को परास्त करने से ही आत्म-बोध संभव है। जिस प्रक्रिया से दूसरों को उत्पीड़न न हो और विजातीय तत्त्व का रेचन हो, वह तप है। आत्म-बोध यदि तप से नहीं होता है तो वह तप अज्ञान तप की कोटि में चला जाता है। महावीर अज्ञान तप के प्रशंशक नहीं; अपितु उसके प्रबल विरोधक थे । वे शुद्ध क्रिया के समर्थक थे । चाहे कोई भी व्यक्ति कहीं पर करता हो, उनकी दृष्टि में वह समादरणीय था। अनेक अन्य मतावलम्बी व्यक्तियों की भी महावीर ने प्रशंसा की थी। किन्तु हिंसापूर्ण क्रिया और आत्मज्ञान को आवृत करने वाले कार्यों से वांछित वस्तु की प्राप्ति को वे असंभव मानते थे। वे ही क्रियाकांड महत्त्वपूर्ण और उपादेय हैं जो व्यक्ति को आत्मा के निकट ले जाते हैं। जिनसे आत्मा दूर होती है वे कैसे उपादेय हो सकते हैं।' योगसार में कहा है - "गृहस्थ हो या साधु, जो आत्मस्थ होता है, वही सिद्धि-सुख को प्राप्त कर सकता है, ऐसा जिन-भाषित है।" परमात्म प्रकाश में कहा है- "संयम, शील, तप, दर्शन और ज्ञान सब आत्म-शुद्धि में है। आत्म-शुद्धि से ही कर्माक्षय होता है, इसलिए आत्म-शुद्धि प्रधान है।” महावीर कहते हैं- गलत दिशा में चलकर कोई भी व्यक्ति अभीष्ट को प्राप्त नहीं कर सकता। इससे तो वह वहीं पहुंचता है जहां पहुंचना नहीं चाहता। साध्य और साधन-दोनों की शुद्धि अत्यन्त अपेक्षित है। आत्मनः सदृशाः सन्ति, भेदो देहस्य दृश्यते। आत्मनो ये जुगुप्सन्ते, महामोहं व्रजन्ति ते ॥१७॥ १७. स्वरूप की दृष्टि से सब आत्माएं समान हैं। उनमें केवल शरीर का अन्तर होता है । जो आत्माओं से घृणा करते हैं, वे महामोह में फंस जाते हैं। १. रत्नसार १/७० २. योगसार १/६५ ३. परमात्मप्रकाश २/६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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