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अध्याय १५ : ३३०
विमुख नहीं हो सकता । संयम और व्रत-त्याग में निष्ठा रखता हुआ भी व्यवहार जगत् से अपने सम्बन्ध बनाये रखता है। लेकिन अंतर इतना है कि यदि वह संयमयुक्त है तो गृह-कार्य करता हुआ भी उनमें अनुरक्त नहीं होता; जबकि एक असंयमवान व्यक्ति उन्हीं कार्यों में रचा-पचा रहता है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा- 'जो केवल व्यवहार जगत् में जागरूक रहता है वह आत्म-जगत् की दृष्टि से सुप्त है; और जो आत्म-जगत् में जागृत रहता है वह व्यवहार जगत् में सुप्त है। आत्म-जगत् में जागृत रहने से हमारा व्यवहार बन्द नहीं होता, किन्तु व्यवहार में जो आसक्ति होती है वह खत्म हो जाती है। __साधक के लिए व्यवहार गौण है और आत्मा प्रधान है। वह आत्म-हित को खोकर कहीं प्रवृत्त नहीं हो सकता। भगवती आराधना में कहा है - 'आभ्यन्तर शुद्धि के साथ बाह्य-व्यवहार-शुद्धि तो अवश्यंभावी है। बहिरंग दोष इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति भीतर शुद्ध नहीं है।' व्यवहार-शुद्धि धोखा भी हो सकती है। गृहस्थ श्रावक जो अपनी अन्तश्चेतना में उतर गया, वह बाहर में लिप्त नहीं होता।
,अभोगी नोवलिप्यइ'-आत्मानुरक्त व्यक्ति उपलिप्त नहीं होता। जीवनचर्या उसकी भी होती है, वह व्यवहार में कार्य भी करता है, किन्तु अपने केन्द्र को छोड़ता नहीं।
अज्ञानकष्टं कुर्वाणा, हिंसया मिश्रितं बहु। मुमुक्षां दधतोऽप्येके, बध्यन्तेऽज्ञानिनो जनाः ॥१५॥
१५. [अविवेकपूर्ण ढंग से बहुत सारे हिंसा-मिश्रित कष्टों को झेलने वाले अज्ञानी लोग मुक्त होने की इच्छा रखते हुए भी कर्मों से आबद्ध होते हैं।
कर्मकाण्डरताः केचिद्, हिंसां कुर्वन्ति मानवाः।
स्वर्गाय यतमानास्ते, नरकं यान्ति दुस्तरम् ॥१६॥ १६. क्रियाकाण्ड में आसक्त होकर जो लोग हिंसा करते हैं वे स्वर्ग-प्राप्ति का प्रयत्न करते हुए भी दुस्तर नरक को प्राप्त होते हैं।
महावीर कष्ट-सहिष्णु थे और कष्टों के आमन्त्रक भी थे। समागत या आमंत्रित कष्टों में उनकी धति अविच्युत थी। उनकी दृष्टि आत्मा पर थी। वे आत्म
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