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आमुख १ ५ था, क्योंकि वहा घास-फूस, वृक्ष-लताएं थीं ही नहीं । सारा समतल मैदान था । तुमने शरीर को खुजलाने के लिए अपना एक पैर उठाया । शरीर को खुजलाकर तुमने अपना पैर नीचे रखना चाहा । तुमने देखा कि पैर के उस भू-भाग पर एक खरगोश प्राण-रक्षा के लिए बैठा है । पैर रखने पर वह मर न जाये, इस आशंका से तुमने अपने एक पैर को अधर आकाश में लटकाये रखा। एक दिन बीता । दो दिन बीते । अभी भी दावानल सुलग रहा था। तीसरे दिन का पूर्वाह्न भी बीत गया। अब आग शांत हुई । सब पशु अपने-अपने सुरक्षित स्थान को लौट गए । तुम्हारे साथ वाले हाथी भी चले गए। वह खरगोश भी भाग गया। तुमने पैर नीचे रखना चाहा । पैर अकड़ गया था। वह नीचे नहीं सरका । तुम्हारा भारी-भरकम शरीर लड़खड़ा गया। तीन दिन के भूखे-प्यासे और तीन पैरों पर इतने लंबे समय तक खड़े रहने के कारण तुम्हारी शक्ति क्षीण हो गयी थी। तुम धड़ाम से नीचे गिर पड़े। उस समय तुम्हारा आयुष्य सौ वर्ष का था । तुम्हारी तत्काल मृत्यु हो गयी। वहां से तुम श्रेणिक के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए ।
पशु की उस योनि में तुम सम्यक् दर्शन से समन्वित नहीं थे, फिर भी तुमने उस विकराल और असामान्य वेदना को समभावपूर्वक सहा । उस अपूर्व तितिक्षा से ही तुम्हें मनुष्य जन्म मिला है । आज तुम सम्यक् दर्शन संपन्न मुनि हो । आज एक रात के इन तुच्छ शारीरिक कष्टों से विचलित हो गए ? तुम इतने अधीर हो गए ? घर जाने की मनःस्थिति बनाली ? तुम अपने पूर्व जन्म की स्मृति करो और देखो कि उन कष्टों की तुलना में ये क्या कष्ट हैं ? कहां मेरु कहां राई ?
मेघ का सोया हुआ चैतन्य जाग गया। उसके मन में एक नयी सिहरन दौड़ गयी । चित्त एकाग्र हो गया । पूर्वजन्म की स्मृति ताजा हुई और उसके सामने चलचित्र की भांति सारा दृश्य आने लगा । उसने सारी घटना का साक्षात्कार किया । भगवान् महावीर ने जैसा कहा वैसा अक्षरशः सामने आ गया ।
पूर्वजन्म की घटना को साक्षात् कर वह गद्गद् हो उठा । उसका संवेग दुगुना हो गया। आंखों से आनंद के आंसू टपकने लगे । हृदय हर्षान्वित हो उठा । सारा शरीर रोमांचित हो गया । वह तत्काल भगवान् को वंदना-नमस्कार कर बोला'भगवन् ! आज से दो आंखें मेरी अपनी रहेंगी, शेष सारा शरीर इन निर्ग्रथों के लिए समर्पित रहेगा । भंते! आपने मुझे पुनः संयम में स्थिर किया है। आप मुझे पुनः संयम जीवन दें और कृतार्थ करें ।'
भगवान् ने उसे पुनः संयम में आरूढ़ किया ।
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अब निग्रंथ मेघ मुनिचर्या का अप्रमत्तभाव से पालन करता हुआ विहरण करने लगा। उसने पांच समितियों और तीन गुप्तियों को जीवनगत कर लिया । सारी लेश्याएं आत्माभिमुख कर वह जनपद-विहार करने लगा । संवेग वृद्धिंगत होता गया । उसने अपने आपको संयम के लिए समर्पित कर तपोयोग की साधना में लीन
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